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{{KKRachna
|रचनाकार=महाराज बहादुर `बर्क़'
<poem>
'''तेग़े-हिन्दी<ref>भारतीय तलवार</ref>''' साफ़ करती सफ़े-दुश्मन <ref>शत्रु का व्यूह</ref>तू जिधर चलती है
हाथ बाँधे तेरे साये में ज़फ़र <ref>विजय-श्री</ref>चलती है
तुझ में वोह आब है शेरों का जिगर पानी है
तेरा मारा हुआ मैदाँ<ref>मैदान</ref>में न पानी माँगे
दिल लरज़ते हैं ज़रा तू जो लचक जाती है
चश्मे-ग़द्दार <ref>देशद्रोही के नेत्रों में</ref>में बिजली-सी चमक जाती है
अपने मरक़ज़ <ref>केन्द्र</ref>से ज़मीं <ref>भूमि</ref>रन <ref>रण</ref>की सरक जाती है
मौत भी सामने आए तो झिझक जाती है
जब कभी रन में चमकती हुई तू निकली है
ख़ौफ़<ref>भय</ref>से हो के फ़ना<ref>बरबाद</ref>जाने-उदू <ref>शत्रु के प्राण</ref>निकली है
लोहा माने हुए बैठा है ज़माना तेरा
कि लबे-ज़ख़्म<ref>घाव के होंठ</ref> पर अब तक है फ़साना तेरा
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