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{{KKRachna
|रचनाकार= जावेद अख़्तर
|संग्रह= तरकश / जावेद अख़्तर
}}
[[Category:गज़लग़ज़ल]]<poem>दुख के जंगल में फिरते हैं कब से मारे मारे लोग जो होता है सह लेते हैं कैसे हैं बेचारे लोग
दुख के जंगल जीवन-जीवन हमने जग में फिरते हैं कब से मारे मारे लोग <br>खेल यही होते देखा जो होता है सह लेते हैं कैसे हैं बेचारे धीरे-धीरे जीती दुनिया धीरे-धीरे हारे लोग <br><br>
जीवन भर हमने खेल यही होते देखा <br>वक़्त सिंहासन पर बैठा है अपने राग सुनाता हैधीरे धीरे जीती दुनिया धीरे धीरे हारे संगत देने को पाते हैं साँसों के इकतारे लोग<br><br>
नेकी इक दिन काम आती है हमको क्या समझाते होहमने बेबस मरते देखे कैसे प्यारे-प्यारे लोग इस नगरी में क्यों मिलती है रोटी सपनों के बदले <br>जिनकी नगरी है वो जाने जानें हम ठहरे बंजारे बँजारे लोग <br><br/poem>
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