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{{KKRachna
|रचनाकार= जावेद अख़्तर
|संग्रह= तरकश / जावेद अख़्तर
}}
[[Category:गज़लग़ज़ल]]<poem>दुख के जंगल में फिरते हैं कब से मारे मारे लोग जो होता है सह लेते हैं कैसे हैं बेचारे लोग
नेकी इक दिन काम आती है हमको क्या समझाते होहमने बेबस मरते देखे कैसे प्यारे-प्यारे लोग इस नगरी में क्यों मिलती है रोटी सपनों के बदले <br>जिनकी नगरी है वो जाने जानें हम ठहरे बंजारे बँजारे लोग <br><br/poem>