शृंगार-वर्णन / रस प्रबोध / रसलीन
शृंगार-वर्णन
कहि थिर भाव विभाव पुनि अनुभै अरु चर भाव।
अथ बरनत सिंगार पुनि जिहि सुनि बाढ़त चाव॥925॥
शृंगार-रस-लक्षण
लहि विभाव अनुभाव चर भाउ जबै रति भाव।
पूरन प्रगटे रस कहत तिहि सिंगार कवि राव॥926॥
पहले उपजत परस्पर दंपति को रस भाव।
रितु आदिक उद्दीप ते पुनि चितु बाढ़त चाव॥927॥
पुनि रति हो ते आइ कै प्रगट होत अभिलाख।
पुनि प्रगटत अभिलाष ते चिंता यह मन राख॥928॥
चिंता ते प्रगटत सकल मन बिबचारी आनि।
तिन को सहकारी कहैं यह मन मैं पहिचानि॥929॥
जब रति करि अनुभाव कौ बाहिर देति लखाइ।
तब निकसत हैं संग ही यै सहकारी आइ॥930॥
ये मन में रति भाव को ज्यौं सब करत सहाव।
रति अनुभाव न सहकरति त्यौं इनिके अनुभाव॥931॥
पुनि भै जब अनुभाव ते ये सहकारी आनि।
तब अति पर परगट भए रति के यह जिय जानि॥932॥
पूरन ह्वै रति भाव जब यहि बिधि प्रगटै आइ।
ताही में मन मगन भै रस सिंगार कहि जाइ॥933॥
शृंगार रस-उदाहरण
मोहन मूरति लाल की कामिनि देखि लुभाइ।
रीझि छकी मोही थकी रही एक टक लाइ॥934॥
पिय तन निरखि कटाच्छ सों यौं तिय मुरी लजाइ।
मनौ खिची मन मीन कौ लीन्हौं बंसी लाइ॥935॥
पास आइ मुसकाइ कै अति दीनता दिखाइ।
नेह जनाइ बनाइ हरि मो मन लियो लुभाइ॥936॥
तरुनि बरन सर करन को जग में कौन उदोत।
सुबरन जाके अंग ढिग राखत कुबरन होत॥937॥
लाल पीत सित स्याम पट जो पहिरत दिन रात।
ललित गात छबि छाय कै नैनन में चुभि जात॥938॥
शृंगार रस-भेद-कथन
कहैं सँजोग बियोग ह्वै गनि सिँगार सब लोग।
मिलन कहत संजोग अरु बिछुरन कहत वियोग॥939॥
जानु संजोग दरखऽरु रस बाहिर की रीति।
दंपति हिय के मोद को करि संजोग प्रतीति॥940॥
संजोग शृंगार-उदाहरण
निजु चावन सौं बैठि कै अनि सुख लेत नबीन।
दोऊ तन पानिपन मैं दोऊ के दृग मीन॥941॥
लै रति सुख विपरीत ज्यौं रची प्रिया अरु मीत।
दोऊ नूपुन पर भई इक रसना की जीत॥942॥
राते डोरन तें लसत चख चंचल इहि भाय।
मनु बिबि पूना अरुन मैं खंजन बांध्यौ आय॥943॥
मिलन स्थान-वर्णन
सखी सदन सूने सदन उपबन विपिन सनान।
और ठौर हूँ ह्वै सकति दंपति मिलन स्थान॥944॥
सखी सदन का मिलन
कान्ह बनाइ कुमारिका, सखी गेह में ल्याइ।
चोरमिहिचुनी मैं दई लै राधकहि मिलाइ॥945॥
सूने सदन का मिलन
धनि सूने घर पाइ यों हरि लीन्हौं उर लाइ।
सूने गृह लहि लेत हैं ज्यों धन चोर उठाइ॥946॥
उपवन का मिलन
फिरति हुती तिय फूल के भूषन पहिरि अतूल।
हरि लखि उपबन कूल मैं भई और ही फूल॥947॥
विपिन का मिलन
हरि को लखि यहि राधिका ठहिराई यह भाइ।
मनु तमाल तरु को गई पुहुपलता लपटाइ॥948॥
स्नान-स्थल का मिलन
दोऊ सरबर न्हात अरु फिरि फिरि चुभकी लेत।
परसि लहर जल परसपर सुरति परस सुख देत॥949॥
चुभकी लै लै मिलत अरु उठित दूरि नित जाइ।
परस कंप रोमांच इनि दुरयौ सरोवर न्हाइ॥950॥