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संभले नहीं संभाली रेत / अश्वनी शर्मा
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संभले नहीं संभाली रेत
हमने फिर भी पाली रेत।
रेत भले हो खाली रेत
होती नहीं सवाली रेत।
तन पर क्या रखना इसका
मन में कहीं छिपा ली रेत।
होली रोज मनाती है
कभी-कभी दीवाली रेत।
जाने कहां छिपी बैठी
निकली नहीं, निकाली रेत।
कभी आसमां छू आती
कभी निठल्ली ठाली रेत।
सूरज संग अंगारा है
चंदा संग मतवाली रेत।
मनमौजी उड़ती-फिरती
फिर भी मगर निभा लो रेत।
छूकर जीकर, निरख परख
अपनी देखी भाली रेत।