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सखी! न को‌ई और जगत्‌ में / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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सखी! न को‌ई और जगत्‌में मुझ-सा कहीं अघी दुख-धाम।
जिसके कारण रहते प्रियतम दुखी, नहीं पाते विश्राम॥
भूल न सकती मैं प्रियतमको एक पलक भी आठों याम।
इसीलिये वे मेरी स्मृतिमें रहते सदा व्यथित घनश्याम॥
सुख-साधन समग्र, सेवक शुचि, सु-प्रासाद, रय आराम।
ललना गुण-सौन्दर्य परम माधुर्यमयी सेविका ललाम॥
सब कुछ होनेपर भी रहती मेरी स्मृति छा‌ई उर-धाम।
इससे कुछ न सुहाता उनको, पाते नहीं तनिक आराम॥
मैं यदि भूल सकूँ तो वे भी भूल जायँ मुझको सुखधाम।
पाकर सब अनुकूल, बनें वे सुखी सहज प्रिय प्राणाराम॥
प्यारी सखी! करो तुम ऐसा को‌ई तुरत सिद्धिप्रद काम।
मेरे मनसे मृत-संजीवनि स्मृति उनकी मिट जाय तमाम॥
मुझे बता‌ओ या मैं जिसको करूँ अभी मनसे अविराम।
जिससे हों वे सुखी प्राणधन खिले वदन-पंकज अभिराम॥