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सतपुड़ा के शिखरों से / प्रेमशंकर रघुवंशी

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अभी-अभी ख़त मिला
सतपुड़ा के शिखरोंसे
जिसके ऊपर मोहर लगी बरगद की

सागुन,साज,सतकटा, शीशम ने मिलकर
जिसमेम अपनी करुण-कथा लिखवाई है
महुआ, तेंदू, खेर,अचार-आँवला हर्र-बहेड़ों ने
अब तक की अपनी सारी चोटें गिनवाई हैं

लाल-लाल फूलों के रस में
बर्र की मोटी क़लमों से
जो लिखा पलाश ने अपने हाथों
पढ़कर उसको बार-बार आँसू आते हैं

सूखे नद्दी-नालोंने
रेती बजरी से घायल अँगुलियों से
बाँस-घास की
वनचर-वनजीवी की
जो व्यथा लिखी है
पढ़ते हुए उसे हम सबके
रोम-रोम तक सिसक उठे हैं

और अंत में ख़ुद पहाड़ ने अपने हाथों
जो कुछ भी लिक्खा है
वह सब दिल के टुकड़े-टुकड़े कर देता है
उसने लिखा कि-
मेरी नदियाँ जलधाराएँ
रातों-रात चुराई जातीं
जीव-जन्तुओं खरगोशों की तो क्या कहना
तीतर, वन मुर्गे तक पकड़े जाकर
होटल में बेचे जाते हैं
खालें भी बाज़ार में
बेची जाती अजगर तक की
रोज़-रोज़ विस्थापित होते बेटे-बेटी

और प्रलोभन में उलझाकर
ठेकेदारों ने
नस्लें तक बिगाड़ दीं झोपड़ियों की

निगल रहे पल-पल तस्करिये मेरी देही
यह सच है कि पहले से-
मैं तो नंगा था-भूखा था
किंतु मूल-फल-कंद से
अगुवानी करता था सबकी
अब क्या खाऊँ ? क्या पहनूँ ओढ़ूँ ?
क्या खिलवाऊँ ? क्या औरों को पहनाऊँ ?

ख़त पाते ही फ़ौरन यहाँ चले आओ
वरना तुम भी अपराधी होगे मेरी हत्या के
और न कर पाओगे अंतिम दर्शन

देर न करना वरना शायद
वर्षों बाद मिलूँगा फ़ासिल्सों मेम्तुमको
शेष बचेंगे जो भी
शैल-शिखर घाटी-मैदानों में
वे भी भूल न पाएँगे मेरे इस ग़म को ।