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सागर / प्रताप सहगल
Kavita Kosh से
देखो सागर फेंक रहा इस्पात
यह आदत उसकी जन्मजात।
इस्पात आग में ढल जाता है
और हमें करता हैरान
कोटि-कोटि जिह्वाएं इसकी
नहीं एक भी इसका कान
न जाने यह उछल-उछलकर
कौन हमें देता सौगात
यह आदम इसकी जन्मजात
कौन सुने सागर की बातें
किसको फुरसत, किसको ध्यान
कौन सुने पगले का रौरव
कौन रख सके इसका मान
कभी उछलता, कभी बिखरता
नहीं समझता जग हालात
यह आदत इसकी जन्मजात।
सिर्फ समर्पण की भाषा ही
देखो समझे सागर
सत्ता से इसकी सांठ-गांठ
समझाता है आ-आकर
कभी डराकर, कभी हराकर
समझता है अपनी बात
यह आदत इसकी जन्मजात।