सागर के उस पार / गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'
सागर के उस पार
सनेही,
सागर के उस पार ।
मुकुलित जहाँ प्रेम-कानन है
परमानन्द-प्रद नन्दन है ।
शिशिर-विहीन वसन्त-सुमन है
होता जहाँ सफल जीवन है ।
जो जीवन का सार
सनेही ।
सागर के उस पार ।
है संयोग, वियोग नहीं है,
पाप-पुण्य-फल-भोग नहीं है ।
राग-द्वेष का रोग नहीं है,
कोई योग-कुयोग नहीं है ।
हैं सब एकाकार
सनेही !
सागर के उस पार ।।
जहाँ चवाव नहीं चलते हैं,
खल-दल जहाँ नहीं खलते हैं ।
छल-बल जहाँ नहीं चलते हैं,
प्रेम-पालने में पलते हैं ।
है सुखमय संसार
सनेही !
सागर के उस पार ।।
जहाँ नहीं यह मादक हाला,
जिसने चित्त चूर कर डाला ।
भरा स्वयं हृदयों का प्याला,
जिसको देखो वह मतवाला ।
है कर रहा विहार
सनेही !
सागर के उस पार ।।
नाविक क्यों हो रहा चकित है ?
निर्भय चल तू क्यों शंकित है ?
तेरी मति क्यों हुई थकित है ?
गति में मेरा-तेरा हित है।
निश्चल जीवन भार
सनेही !
सागर के उस पार ।।