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साधना सिद्धि है प्रेम की / रामगोपाल 'रुद्र'

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साधना सिद्धि है, प्रेम की;
सिद्धि है प्रेम की साधना!

चाँद बन तुम चढ़े आसमाँ पर,
आज देखो कि तुम हो कहाँ पर!
क्षुब्ध हैं पग तुम्हारे लहर पर;
शान्‍त है सिन्‍धु-आराधना!

मुँह खुला, हो गए फूल कुंकुम!
क्यों रखो याद अब शूल को तुम?
गंध ही जब स्वयं कह रही है
व्यर्थ है बाँधना; बाँध ना!

दीप के नेह में जो पगे तुम,
लौ बने और जग में जगे तुम,
क्या हुआ, जो तले ही अँधेरा?
तुम बनो साधना, साध ना!