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सार्थक / रणजीत
Kavita Kosh से
आज ज्यों ही मैं टहलने के क्रम में
पार्क के अपने व्यायाम स्थल पर पहुँचा
पास की ग्रेनाइट शिला पर कसरत कर रही
एक बुजुर्ग गौरांगना बुरकाधारी महिला ने
निहायत अपनेपन से भरी मुस्कान के साथ
‘नमस्ते’ कहा-
नहीं जानती, नहीं पहचानती सी रूखी
बेरुख नज़रों के बदरंग बादलों के बीच
एक बिजली सी कौंध गयी-
मेरा आज का टहलना सार्थक हो गया।