भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सिलसिले के बाद कोई सिलसिला / ज़फ़र गोरखपुरी
Kavita Kosh से
सिलसिले के बाद कोई सिलसिला रौशन करें
इक दिया जब साथ छोड़े दूसरा रौशन करें
इस तरह तो और भी कुछ बोझ हो जाएगी रात
कुछ कहें कोई चराग़-ए-वाक़िया रौशन करें
जाने वाले साथ अपने ले गए अपने चराग़
आने वाले लोग अपना रास्ता रौशन करें
जलती बुझती रौशनी का खेल बच्चों को दिखाएँ
शम्मा रक्खें हाथ में घर में हवा रौशन करें
आगही दानिश दुआ जज़्बा अक़ीदा फ़लसफ़ा
इतनी क़ब्रें हाए किस किस पर दिया रौशन करें
शाम यादों से मोअत्तर है मुनव्वर है ‘ज़फ़र’
आज ख़ुश-बू के वज़ू से दस्त ओ पा रौशन करें