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सोने के हल से / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
Kavita Kosh से
मैं तुम्हारे इशारे पर
दौड़ पड़ा
सोने के हिरन के पीछे;
बिना सोचे-समझे
बिना देखे आगे-पीछे।
और इतना दौड़ा
कि दौड़ता ही गया
दौड़ता ही गया
दौड़ता ही गया।
सोने का हिरन भी
मुड़-मुड़ कर
पीछे मुझे
देखता ही गया
देखता ही गया
देखता ही गया।
ऊँची-ऊँची छलाँगें वह
भरता ही गया
भरता ही गया
भरता ही गया।
लेकिन जब
वन से मैं लौटा तो
मिली मुझे पर्णकुटी
अपनी ही लुटी हुई
सोने के हल से उगी हुई
फसल सब कटी हुई।
23.3.82