भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हम ही देश के किसान / जयराम दरवेशपुरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

धरती के खोंचछवा के शान
भइया हो! हमनी ही देश के किसान

पालल जुअनियाँ के खेतवा जरइलूं
भूखल जिनगिया के लोर में दहइलूं
आहले ही रांगल बिहान

उभरल नस-नस बचले हे हड़िया
जान से पियारा हइ तइयो धरतिया
धुज-धुज अन्हरिया ले चान

टिटही हिहुँक उड़े छक्-छक् रउदवा
हाथ गोड़ चत सीझे भदवा के कदवा
अगहन पर लगल हे ध्यान

बरफ के हाही चले पूस माघ जड़वा
थरथर कँपऽ हइ सपना कपड़वा
पोवरा में घुसि-घुसि करऽ ही बिहान

उपजल बासमती रहरी मसुरिया
गहगह सरसो अउ नील-नील तिसिया
तइयो हइ मकइए परान

एकता बनावऽ भइया मजूर किसनमां
हमहीं बनइबइ देश के कनुनमां
दुसमन हो जइतइ चितान।