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होगा जब कभी भी उदास वह / लीलाधर मंडलोई
Kavita Kosh से
मुदित होगा जिस किसी रोज
पकड़कर भीतर का कोमल सिरा
उतर पडूंगा उसकी आत्मा की अभेद्य गहराइयों में
सहलाते हुए उसकी देह एक बच्चे की तरह
बतियाऊंगा दुख-सुखों के बारे में
जान लूंगा देर-सबेर उसकी दुखती रगें
पूछूंगा रंग बदलती लहरों का अर्थ और
समझ लूंगा वो तमाम रहस्य
जो जानता है वह अकेला
छुपा के रख छोडूंगा मन के एकांत कोटर में
दुख और सकल सुख
पढूंगा बिना चूक फिर लहरों के बदलते रंग
होगा जब कभी भी उदास वह
पहुंचकर चौंका दूंगा अनायास
रहूंगा उपस्थित जल के साथ ऐसी घड़ी
लगे उसे, स्वार्थ से परे,
दुखों में पहुंच सकता है जो, वह भी मनुष्य है