भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हो जो तौफीक तो ज़रा देखो / देवी नांगरानी
Kavita Kosh से
हो जो तौफ़ीक तो ज़रा देखो
संग में भी बसा ख़ुदा देखो
अब जिये भी तो क्या जिये कोई
एक महशर-सा है बपा, देखो
दिल के जज़्बात मैं लिखूँ कैसे
कम है लफ़्जों का सिलसिला देखो
ख़्वाहिशें रक्खो ज़िन्दा तुम वर्ना
ज़िन्दगी होगी बेमज़ा देखो
छंट गया है ग्रहण ग़ुलामी का
मस्त आज़ादियाँ ज़रा देखो
दस्तकें देके दिल के दर पर यूँ
ये हवा कह रही है क्या देखो
सुबह के इंतजार में ‘देवी’
रात जागी है क्या ज़रा देखो