भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
202 / हीर / वारिस शाह
Kavita Kosh से
रले दिलां नूं पकड़ विछोड़ देंदे बुरी बान है तिनांह हतिआरयां नूं
नित शहर दे फिकर गलतान<ref>डूबे हुए</ref> रहिंदे एहो शामत है रब्ब दयां मारयां नूं
खावन वढियां नित ईमान वेचन एह मार है काज़ियां सारयां नूं
रब्ब दोजखां नूं भरे पा बालन केहा दोश है असां विचारयां नूं
वारस शाह मियां बनी बहुत औखी नाहीं जानदे सां इनहां कारयां नूं
शब्दार्थ
<references/>