भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बची हुई तुम / अरुण श्री

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:28, 6 जुलाई 2015 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अरुण श्री |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

साँझ हुई, मैं झाँक हूँ पार क्षितिज के।
एक दिशासूचक उस ओर इशारे करता -
जिधर गई तुम,
नम आँखों से बिखराते कुछ बीते लम्हे।
लेकिन मेरे मानचित्र पर अंकित जो गंतव्य
- अलग है।
जाना होगा।
बीते लम्हों पर अपना गम टाँक -
रोप दूँगा धरती में
फूल उगेंगे, गीत लिखूँगा मैं खुशबू के।

ओस ओढ़ कर सोते फूलों के मन में भी
आग पुरानी ख्वाब नया बुनती तो होगी।
लेकिन एक नया सूरज जब भोर भए -
उगता है आँगन में तुलसी के पीछे से।
तब गीली देह लुटाती है खुशबू,
आँगन हँसने लगता है।
पंखुड़ियों की तह में ख्वाब छुपा होता है,
आँसू बनकर।

जाने क्या -
जो सख्त बर्फ के नीचे अपनी गर्माहट से
सींच रहा है बीता रिश्ता।
शायद -
तुम थोड़ी थोड़ी मुझमें रहती हो।
पास तुम्हारे छूट गया हूँ थोड़ा मैं भी।