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विनय 2 / शब्द प्रकाश / धरनीदास

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आवत जात प्रवाह सदा, धन जोरि बटोरि धरो न कबाहीं।
तू महराज गरीब नेवाज, अकाज सुकाज को लाज तुमही॥
जो हृदये हरि को पदपंकज सो मति मो मनते विसराही।
कहे धरनी मनसा वच कर्मन, मोहि परो अवलम्बन नाही॥18॥