अंगिका रामायण / चौथा सर्ग / भाग 11 / विजेता मुद्गलपुरी
शृंगी कहलन नीति वचन दशानन के
नीति के विरूद्ध राज धरम नसाय छैं
नीति के विरूद्ध जौने पंथ या समाज चलै
तौने ठाम ही नरक प्रकट बुझाय छै।
जौने राज के रोॅ राजा नीति के विरूद्ध चलै
तौने राज, लछमी-सरस्वती दुराय छै।
जौने परिवार के रोॅ पुरूष नीति विरूद्ध
नारी तहाँ के चरित्रहीन बनी जाय छै॥101॥
नीति ही मनुष्य के रोॅ पहिलोॅ धरम छिक
नीति ही मनुष्य के सामाजिक बनाय छै।
नीति ही मनुष्य आरो पशु में विदेभ करै
नीति बले ही विधाता जगत चलाय छै।
राज परिवार या समाज के चलावै लेली
सब लेली नीति अनिवारज बुझाय छै।
सुन्दर समाज वहेॅ धरम के राज जहाँ
नीतिवान सब के सुनीति सिखलाय छै॥102॥
राजा अभिमानी जहाँ, मूरख सलाहकार
संत जहाँ वंदीगृह परि दुख पाय छै।
मूरख पुजावै जहाँ, पंडित दुरावै जहाँ
परजा धरम हीन क्रूड़ बनी जाय छै।
बहुमत जहाँ अपराधी के आदर्श मानै
अपराधी जहाँ देवता जकाँ पुजाय छै।
लूट के रोॅ धन में न लछमी विराजै कभी
जेना क ऊ आवै छै, ओनाही चलि जाय छै॥103॥
वेदपाठी जौने न वैदिक आचरण राखै
ओहनोॅ के ज्ञान निसप्राण बनि जाय छै।
जेना कि भोजन घर के रोॅ कोनो बरतन
स्वाद से निपट अनजान रहि जाय छै।
मंदिर के उपरी मुंड़ेर पर बैठी काग
सुनल्हो कि कभी ऊ गरूड़ बनी जाय छै।
सोना के सिंहासन पे गरब न ढेर करोॅ
दान भोग हीन धन नाश दिश जाय छै॥104॥
कुण्डलिया -
जग मंे सब अभिमान से, टेढ़ा धन-अभिमान।
मेटै धन-अभिमान छै, अपनोॅ के पहचान।
अपनोॅ के पहचान, संत के सहज दुरावै।
कलाकार-गुणवान जनोॅ के समझि न पावै।
कभी न बैठै संत-ज्ञानि-गुनिजन के लग में।
‘मुद्गल’ धन-अभिमान बहुत टेढ़ा छै जग में॥2॥
दोहा -
ज्ञानी जन छै हंस सन, मानी उलुक समान।
ज्ञानी के हिय शरदा, मानी हिय अग्यान॥18॥
वाहन सरस्वती के सदैव परमहंस
लछमी के वाहन उलूक बनी जाय छै।
एक दिश हंस जहाँ नीर-क्षीर न्याय करै
उलूक सदैव असगुण ही मनाय छै।
उल्लू के रोॅ राज जहाँ, तिमिर के बास तहाँ
हंस के ऊपर प्रतिबन्ध लगि जाय छै।
हंस के रोॅ वास जहाँ, ज्ञान प्रकाश तहाँ
उलूक हमेशा खडदोष उपजाय छै॥105॥
देव-गुरु-संत में जे आसथा न रोपि राखै
तहाँ पुरोहित्य कर्म करना न चाहियोॅ।
रोग-दुख आरो दुरभिक्ष में न काम आबेॅ
स्वजन एहनका के कहना न चाहियोॅ।
माता-पिता-गुरु-देश-बान्धव-पितर-देव
सातो के अनादर के सहना न चाहियोॅ
समरथहीन-निरलज्ज-किरपिन-झूठ-
कायर के संग कभी रहना न चाहियोॅ॥106॥
रावण के आगू शृंगी नीति के बखान करि
कहलन मान तजि हरि के सुमरि लेॅ।
हरि रूप अगनि में स्वयं के हवन करि
प्रेम से अभेद दरसन यज्ञ करि लेॅ।
अगिनि सहज गुण सब के आगिन करै
इहेॅ विधि खुद में रामत्व तोहें भरि लेॅ।
सब टा इन्द्रिय के संयम रूपी आगिन में
हवन करि केॅ अपने से यज्ञ करि लेॅ॥107॥
नीति उपदेश कहि लंका से चलल ऐला
कुछ काल आबी क द्रवीर-देश बसलै।
रावण मुरूत-वत् कुछ न कहेॅ सकल
उनकर हाल देखि देवता विहँसलै।
अंग के ही जकाँ भेल द्रबिड़ हरित देश
खेत-वन-बाग आरू वाटिका सरसलै।
शृंगी के रोॅ जयकार चारो दिश गूँजि गेल
इनकोॅ स्वरूप सब के हिया में बसलै॥108॥
‘द्रविर’ नरेश सिनी शृंगी के चरण पूजी
सादर-सप्रेम अंगदेश पहुँचैलकै।
अंग केरोॅ संग ऋषि शृंगी के प्रसंग ेतब
देवऋषि नारद घुमि-घुमि क गैलकै।
राजा दशरथ जी सुमन्त से सुनि क कथा
तुरते आवी गुरू वशिष्ठ के सुनैलकै।
तब कुलगुरू सीख सुनि क सुमन्त के रोॅ
ओकरे में निज सहमति दिखलैलकै॥109॥
दोहा -
गुरू वशिष्ठ के वचन सुनि, हरसल अवध नरेश।
तीनो रानी संग लेॅ, चलला चम्पा देश॥19॥
शृंगी के लानै के लेली रथ के सजैलोॅ गेल
ओकरा ऊपर तीनोंरानी के बिठैलकै।
मंत्री के भी संग करि, सारथी सुमंत संग
राजा दशरथ ‘अंगदेश’ दिश धैलकै।
मारग में ढेर वन-वाग नदी पार कैने
अंगदेश के रोॅ सीमा में प्रवेश कैलकै।
जब रथ चौपाई नगर मंे प्रवेश भेल
स्वागत बहुत राजा रोमपाद कैलकै॥110॥