भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"अंदोह से हुई न रिहाई तमाम शब / मीर तक़ी 'मीर'" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
हेमंत जोशी (चर्चा | योगदान) |
|||
पंक्ति 3: | पंक्ति 3: | ||
|रचनाकार=मीर तक़ी 'मीर' | |रचनाकार=मीर तक़ी 'मीर' | ||
}} | }} | ||
− | + | {{KKCatGhazal}} | |
<poem> | <poem> | ||
17:12, 14 नवम्बर 2009 का अवतरण
अंदोह1 से हुई न रिहाई तमाम शब2।
मुझ दिल-जले को नींद न आई तमाम शब।
[1. अंदोह=दुख; 2. तमाम शब=पूरी रात]
चमक चली गई थी सितारों की सुबह तक,
की आस्माँ से दीदा-बराई तमाम शब।
जब मैंने शुरू क़िस्सा किया आँखें खोल दीं,
यक़ीनी3 थी मुझ को चश्म-नुमाई तमाम शब।
[3. यक़ीनी= अनुशासनहीनता]
वक़्त-ए-सियाह4 ने देर में कल यावरी5 सी की,
थी दुश्मनों से इन की लड़ाई तमाम शब।
[4. सियाह=दर्क; 5. यावरी= मदद]
तारे से तेरी पलकों पे क़तरे अश्क के,
दे रहे हैं "मीर" दिखाई तमाम शब।