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"अंधेरे में / भाग 2 / गजानन माधव मुक्तिबोध" के अवतरणों में अंतर

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अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले उभरे,<br>
 
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शून्य के मुख पर सलवटें स्वर की,<br>
 
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मेरे ही उर पर, धँसती हुई सिर,<br>
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छटपटा रही हैं शब्दों की लहरें<br>
 
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मीठी है दुःसह!!<br>
 
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होठ रख, कोई सच-सच बात<br>
 
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यही बात सुनकर धँस जाय मेरा जी--<br>
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इस तरह, साँकल ही रह-रह बजती है द्वार पर<br>
 
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आधी रात, इतने अँधेरे में, कौन आया मिलने?<br>
 
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द्युतिमय मुख - वह प्रेम भरा चेहरा --<br>
 
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भोला-भाला भाव--<br>
 
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जो मुझे तिलस्मी खोह में दिखा था।<br>
 
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चाहे जिन प्रतीकों में प्रस्तुत, <br>
 
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इशारे से बताता है, समझाता रहता,<br>
 
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अरे, उसके चेहरे पर खिलती हैं सुबहें,<br>
 
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गालों पर चट्टानी चमक पठार की<br>
 
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::कमज़ोरियों से ही लगाव है मुझको)<br>
 
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इसलिए टालता हूँ उस मेरे प्रिय  को<br>
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उठने दो अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले,<br>
 
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वह जन वैसे ही<br>
 
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खड्डे के अँधेरे में मैं पड़ा रहूँगा<br>
 
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पीड़ाएँ समेटे!!<br>
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क्या करूँ क्या नहीं करूँ मुझे बताओ,<br>
 
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इस तम-शून्य में तैरती है जगत्-समीक्षा<br>
 
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अँधियारे मुझमें द्युति-आकृति-सा<br>
 
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भविष्य का नक्षा दिया हुआ उसका<br>
 
भविष्य का नक्षा दिया हुआ उसका<br>
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नहीं, नहीं, उसको छोड़ नहीं सकूँगा,<br>
 
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सहना पड़े--मुझे चाहे जो भले ही।<br><br>
 
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उठता हूँ दरवाज़ा खोलने,<br>
 
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अँधेरे के ओर-छोर टटोल-टटोलकर<br>
 
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22:06, 4 फ़रवरी 2008 का अवतरण

सूनापन सिहरा,
अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले उभरे,
शून्य के मुख पर सलवटें स्वर की,
मेरे ही उर पर, धँसाती हुई सिर,
छटपटा रही हैं शब्दों की लहरें
मीठी है दुःसह!!
अरे, हाँ, साँकल ही रह -रह
बजती है द्वार पर।
कोई मेरी बात मुझे बताने के लिए ही
बुलाता है -- बुलाता है
हृदय को सहला मानो किसी जटिल
प्रसंग में सहसा होठों पर
होठ रख, कोई सच-सच बात
सीधे-सीधे कहने को तड़प जाय, और फिर
वही बात सुनकर धँस जाय मेरा जी--
इस तरह, साँकल ही रह-रह बजती है द्वार पर
आधी रात, इतने अँधेरे में, कौन आया मिलने?
विमन प्रतीक्षातुर कुहरे में घिरा हुआ
द्युतिमय मुख - वह प्रेम भरा चेहरा --
भोला-भाला भाव--
पहचानता हूँ बाहर जो खड़ा है !!
यह वही व्यक्ति है, जी हाँ !
जो मुझे तिलस्मी खोह में दिखा था।
अवसर-अनवसर
प्रकट जो होता ही रहता
मेरी सुविधाओं का न तनिक ख़याल कर।
चाहे जहाँ,चाहे जिस समय उपस्थित,
चाहे जिस रूप में
चाहे जिन प्रतीकों में प्रस्तुत,
इशारे से बताता है, समझाता रहता,
हृदय को देता है बिजली के झटके !!
अरे, उसके चेहरे पर खिलती हैं सुबहें,
गालों पर चट्टानी चमक पठार की
आँखों में किरणीली शान्ति की लहरें
उसे देख, प्यार उमड़ता है अनायास!
लगता है-- दरवाजा खोलकर
बाहों में कस लूँ,
हृदय में रख लूँ
घुल जाऊँ, मिल जाऊँ लिपटकर उससे
परन्तु, भयानक खड्डे के अँधेरे में आहत
और क्षत-विक्षत, मैं पड़ा हुआ हूँ,
शक्ति ही नहीं है कि उठ सकूँ जरा भी
(यह भी तो सही है कि

कमज़ोरियों से ही लगाव है मुझको)

इसीलिए टालता हूँ उस मेरे प्रिय को
कतराता रहता,
डरता हूँ उससे।
वह बिठा देता है तुंग शिखर के
ख़तरनाक, खुरदरे कगार-तट पर
शोचनीय स्थिति में ही छोड़ देता मुझको।
कहता है-"पार करो पर्वत-संधि के गह्वर,
रस्सी के पुल पर चलकर
दूर उस शिखर-कगार पर स्वयं ही पहुँचो"
अरे भाई, मुझे नहीं चाहिए शिखरों की यात्रा,
मुझे डर लगता है ऊँचाइयों से
बजने दो साँकल!!
उठने दो अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले,
वह जन वैसे ही
आप चला जायेगा आया था जैसा।
खड्डे के अँधेरे में मैं पड़ा रहूँगा
पीड़ाएँ समेटे !!
क्या करूँ क्या नहीं करूँ मुझे बताओ,
इस तम-शून्य में तैरती है जगत्-समीक्षा
की हुई उसकी
(सह नहीं सकता)
विवेक-विक्षोभ महान् उसका
तम-अन्तराल में (सह नहीं सकता)
अँधियारे मुझमें द्युति-आकृति-सा
भविष्य का नक्षा दिया हुआ उसका
सह नहीं सकता !!
नहीं, नहीं, उसको छोड़ नहीं सकूँगा,
सहना पड़े--मुझे चाहे जो भले ही।

कमज़ोर घुटनों को बार-बार मसल,
लड़खड़ाता हुआ मैं
उठता हूँ दरवाज़ा खोलने,
चेहरे के रक्त-हीन विचित्र शून्य को गहरे
पोंछता हूँ हाथ से,
अँधेरे के ओर-छोर टटोल-टटोलकर
बढ़ता हूँ आगे,
पैरों से महसूस करता हूँ धरती का फैलाव,
हाथों से महसूस करता हूँ दुनिया,
मस्तक अनुभव करता है, आकाश
दिल में तड़पता है अँधेरे का अन्दाज़,
आँखें ये तथ्य को सूँघती-सी लगतीं,
केवल शक्ति है स्पर्श की गहरी।
आत्मा में, भीषण
सत्-चित्-वेदना जल उठी, दहकी।
विचार हो गए विचरण-सहचर।
बढ़ता हूँ आगे,
चलता हूँ सँभल-सँभलकर,
द्वार टटोलता,
ज़ंग खायी, जमी हुई जबरन
सिटकनी हिलाकर
ज़ोर लगा, दरवाज़ा खोलता
झाँकता हूँ बाहर....

सूनी है राह, अजीब है फैलाव,
सर्द अँधेरा।
ढीली आँखों से देखते हैं विश्व
उदास तारे।
हर बार सोच और हर बार अफ़सोस
हर बार फ़िक्र
के कारण बढे हुए दर्द का मानो कि दूर वहाँ, दूर वहाँ
अँधियारा पीपल देता है पहरा।
हवाओं की निःसंग लहरों में काँपती
कुत्तों की दूर-दूर अलग-अलग आवाज़,
टकराती रहती सियारों की ध्वनियों से।
काँपती हैं दूरियाँ, गूँजते हैं फ़ासले
(बाहर कोई नहीं, कोई नहीं बाहर)

इतने में अँधियारे सूने में कोई चीख़ गया है
रात का पक्षी
कहता है--
"वह चला गया है,
वह नहीं आएगा, आएगा ही नहीं
अब तेरे द्वार पर।
वह निकल गया है गाँव में शहर में।
उसको तू खोज अब
उसका तू शोध कर!
वह तेरी पूर्णतम परम अभिव्यक्ति,
उसका तू शिष्य है(यद्यपि पलातक....)
वह तेरी गुरू है,
गुरू है...."