"अंधेरे में / भाग 4 / गजानन माधव मुक्तिबोध" के अवतरणों में अंतर
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+ | <poem> | ||
+ | अकस्मात् | ||
+ | चार का ग़जर कहीं खड़का | ||
+ | मेरा दिल धड़का, | ||
+ | उदास मटमैला मनरूपी वल्मीक | ||
+ | चल-विचल हुआ सहसा। | ||
+ | अनगिनत काली-काली हायफ़न-डैशों की लीकें | ||
+ | बाहर निकल पड़ीं, अन्दर घुस पड़ीं भयभीत, | ||
+ | सब ओर बिखराव। | ||
+ | मैं अपने कमरे में यहाँ लेटा हुआ हूँ। | ||
+ | काले-काले शहतीर छत के | ||
+ | हृदय दबोचते। | ||
+ | यद्यपि आँगन में नल जो मारता, | ||
+ | जल खखारता। | ||
+ | किन्तु न शरीर में बल है | ||
+ | अँधेरे में गल रहा दिल यह। | ||
− | + | एकाएक मुझे भान होता है जग का, | |
− | + | अख़बारी दुनिया का फैलाव, | |
− | + | फँसाव, घिराव, तनाव है सब ओर, | |
− | + | पत्ते न खड़के, | |
− | + | सेना ने घेर ली हैं सड़कें। | |
− | + | बुद्धि की मेरी रग | |
− | + | गिनती है समय की धक्-धक्। | |
− | + | यह सब क्या है | |
− | मैं | + | किसी जन-क्रान्ति के दमन-निमित्त यह |
− | + | मॉर्शल-लॉ है! | |
− | + | दम छोड़ रहे हैं भाग गलियों में मरे पैर, | |
− | + | साँस लगी हुई है, | |
− | + | ज़माने की जीभ निकल पड़ी है, | |
− | + | कोई मेरा पीछा कर रहा है लगातार | |
− | अँधेरे में | + | भागता मैं दम छोड़, |
+ | घूम गया कई मोड़, | ||
+ | चौराहा दूर से ही दीखता, | ||
+ | वहाँ शायद कोई सैनिक पहरेदार | ||
+ | नहीं होगा फ़िलहाल | ||
+ | दिखता है सामने ही अन्धकार-स्तूप-सा | ||
+ | भयंकर बरगद-- | ||
+ | सभी उपेक्षितों, समस्त वंचितों, | ||
+ | ग़रीबों का वही घर,वही छत, | ||
+ | उसके ही तल-खोह-अँधेरे में सो रहे | ||
+ | गृह-हीन कई प्राण। | ||
+ | अँधेरे में डूब गये | ||
+ | डालों में लटके जो मटमैले चिथड़े | ||
+ | किसी एक अति दीन | ||
+ | पागल के धन वे। | ||
+ | हाँ, वहाँ रहता है, सिर-फिरा एक जन। | ||
− | + | किन्तु आज इस रात बात अजीब है। | |
− | + | वही जो सिर फिरा पागल क़तई था | |
− | + | आज एकाएक वह | |
− | + | जागृत बुद्धि है, प्रज्वलत् धी है। | |
− | + | छोड़ सिरफिरापन, | |
− | बुद्धि | + | बहुत ऊँचे गले से, |
− | + | गा रहा कोई पद, कोई गान | |
− | + | आत्मोद्बोधमय!! | |
− | + | खूब भई,खूब भई, | |
− | + | जानता क्या वह भी कि | |
− | + | सैनिक प्रशासन है नगर में वाक़ई! | |
− | + | क्या उसकी बुद्धि भी जग गयी! | |
− | + | ||
− | कोई | + | |
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− | + | (करुण रसाल वे हृदय के स्वर हैं | |
− | + | गद्यानुवाद यहाँ उनका दिया जा रहा है) | |
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− | + | "ओ मेरे आदर्शवादी मन, | |
− | + | ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन, | |
+ | अब तक क्या किया? | ||
+ | जीवन क्या जिया!! | ||
− | + | उदरम्भरि बन अनात्म बन गये, | |
− | + | भूतों की शादी में क़नात-से तन गये, | |
− | + | किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर, | |
− | + | ||
− | + | दुःखों के दाग़ों को तमग़ों-सा पहना, | |
− | + | अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना, | |
− | + | असंग बुद्धि व अकेले में सहना, | |
+ | ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर, | ||
+ | अब तक क्या किया, | ||
+ | जीवन क्या जिया!! | ||
+ | बताओ तो किस-किसके लिए तुम दौड़ गये, | ||
+ | करुणा के दृश्यों से हाय! मुँह मोड़ गये, | ||
+ | बन गये पत्थर, | ||
+ | बहुत-बहुत ज़्यादा लिया, | ||
+ | दिया बहुत-बहुत कम, | ||
+ | मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम!! | ||
+ | लो-हित-पिता को घर से निकाल दिया, | ||
+ | जन-मन-करुणा-सी माँ को हंकाल दिया, | ||
+ | स्वार्थों के टेरियार कुत्तों को पाल लिया, | ||
+ | भावना के कर्तव्य--त्याग दिये, | ||
+ | हृदय के मन्तव्य--मार डाले! | ||
+ | बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया, | ||
+ | तर्कों के हाथ उखाड़ दिये, | ||
+ | जम गये, जाम हुए, फँस गये, | ||
+ | अपने ही कीचड़ में धँस गये!! | ||
+ | विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में | ||
+ | आदर्श खा गये! | ||
− | + | अब तक क्या किया, | |
− | + | जीवन क्या जिया, | |
− | + | ज़्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम | |
− | + | मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम..." | |
− | अब तक क्या किया, | + | |
− | जीवन क्या जिया | + | |
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− | दिया बहुत-बहुत कम | + | |
− | मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम | + | |
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− | + | इसीलिए गरम है। | |
− | + | सपनों में चलता है आलोचन, | |
− | + | विचारों के चित्रों की अवलि में चिन्तन। | |
+ | निजत्व-माफ़ है बेचैन, | ||
+ | क्या करूँ, किससे कहूँ, | ||
+ | कहाँ जाऊँ, दिल्ली या उज्जैन? | ||
+ | वैदिक ऋषि शुनःशेप के | ||
+ | शापभ्रष्ट पिता अजीर्गत समान ही | ||
+ | व्यक्तित्व अपना ही, अपने से खोया हुआ | ||
+ | वही उसे अकस्मात् मिलता था रात में, | ||
+ | पागल था दिन में | ||
+ | सिर-फिरा विक्षिप्त मस्तिष्क। | ||
− | + | हाय, हाय! | |
− | + | उसने भी यह क्या गा दिया, | |
− | + | यह उसने क्या नया ला दिया, | |
− | + | प्रत्यक्ष, | |
− | + | मैं खड़ा हो गया | |
− | + | किसी छाया मूर्ति-सा समक्ष स्वयं के | |
− | + | होने लगी बहस और | |
− | + | लगने लगे परस्पर तमाचे। | |
− | + | छिः पागलपन है, | |
− | + | वृथा आलोचन है। | |
− | + | गलियों में अन्धकार भयावह-- | |
− | + | मानो मेरे कारण ही लग गया | |
− | + | मॉर्शल-लॉ वह, | |
+ | मानो मेरी निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया, | ||
+ | मानो मेरे कारण ही दुर्घट | ||
+ | हुई यह घटना। | ||
+ | चक्र से चक्र लगा हुआ है.... | ||
+ | जितना ही तीव्र है द्वन्द्व क्रियाओं घटनाओं का | ||
+ | बाहरी दुनिया में, | ||
+ | उतनी ही तेजी से भीतरी दुनिया में, | ||
+ | चलता है द्वन्द्व कि | ||
+ | फ़िक्र से फ़िक्र लगी हुई है। | ||
+ | आज उस पागल ने मेरी चैन भुला दी, | ||
+ | मेरी नींद गवाँ दी। | ||
− | + | मैं इस बरगद के पास खड़ा हूँ। | |
− | + | मेरा यह चेहरा | |
− | + | घुलता है जाने किस अथाह गम्भीर, साँवले जल से, | |
− | + | झुके हुए गुमसुम टूटे हुए घरों के | |
− | + | तिमिर अतल से | |
− | + | घुलता है मन यह। | |
− | + | रात्रि के श्यामल ओस से क्षालित | |
− | + | कोई गुरू-गम्भीर महान् अस्तित्व | |
− | + | महकता है लगातार | |
− | + | मानो खँडहर-प्रसारों में उद्यान | |
− | + | गुलाब-चमेली के, रात्रि-तिमिर में, | |
− | + | महकते हों, महकते ही रहते हों हर पल। | |
− | + | किन्तु वे उद्यान कहाँ हैं, | |
− | + | अँधेरे में पता नहीं चलता। | |
− | + | मात्र सुगन्ध है सब ओर, | |
− | + | पर, उस महक--लहर में | |
− | + | कोई छिपी वेदना, कोई गुप्त चिन्ता | |
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− | मैं इस बरगद के पास खड़ा हूँ। | + | |
− | मेरा यह चेहरा | + | |
− | घुलता है जाने किस अथाह गम्भीर, साँवले जल से, | + | |
− | झुके हुए गुमसुम टूटे हुए घरों के | + | |
− | तिमिर अतल से | + | |
− | घुलता है मन यह। | + | |
− | रात्रि के श्यामल ओस से क्षालित | + | |
− | कोई गुरू-गम्भीर महान् अस्तित्व | + | |
− | महकता है लगातार | + | |
− | मानो खँडहर-प्रसारों में उद्यान | + | |
− | गुलाब-चमेली के, रात्रि-तिमिर में, | + | |
− | महकते हों, महकते ही रहते हों हर पल। | + | |
− | किन्तु वे उद्यान कहाँ हैं, | + | |
− | अँधेरे में पता नहीं चलता। | + | |
− | मात्र सुगन्ध है सब ओर, | + | |
− | पर, उस महक--लहर में | + | |
− | कोई छिपी वेदना, कोई गुप्त चिन्ता | + | |
छटपटा रही है। | छटपटा रही है। | ||
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12:54, 26 अप्रैल 2012 के समय का अवतरण
अकस्मात्
चार का ग़जर कहीं खड़का
मेरा दिल धड़का,
उदास मटमैला मनरूपी वल्मीक
चल-विचल हुआ सहसा।
अनगिनत काली-काली हायफ़न-डैशों की लीकें
बाहर निकल पड़ीं, अन्दर घुस पड़ीं भयभीत,
सब ओर बिखराव।
मैं अपने कमरे में यहाँ लेटा हुआ हूँ।
काले-काले शहतीर छत के
हृदय दबोचते।
यद्यपि आँगन में नल जो मारता,
जल खखारता।
किन्तु न शरीर में बल है
अँधेरे में गल रहा दिल यह।
एकाएक मुझे भान होता है जग का,
अख़बारी दुनिया का फैलाव,
फँसाव, घिराव, तनाव है सब ओर,
पत्ते न खड़के,
सेना ने घेर ली हैं सड़कें।
बुद्धि की मेरी रग
गिनती है समय की धक्-धक्।
यह सब क्या है
किसी जन-क्रान्ति के दमन-निमित्त यह
मॉर्शल-लॉ है!
दम छोड़ रहे हैं भाग गलियों में मरे पैर,
साँस लगी हुई है,
ज़माने की जीभ निकल पड़ी है,
कोई मेरा पीछा कर रहा है लगातार
भागता मैं दम छोड़,
घूम गया कई मोड़,
चौराहा दूर से ही दीखता,
वहाँ शायद कोई सैनिक पहरेदार
नहीं होगा फ़िलहाल
दिखता है सामने ही अन्धकार-स्तूप-सा
भयंकर बरगद--
सभी उपेक्षितों, समस्त वंचितों,
ग़रीबों का वही घर,वही छत,
उसके ही तल-खोह-अँधेरे में सो रहे
गृह-हीन कई प्राण।
अँधेरे में डूब गये
डालों में लटके जो मटमैले चिथड़े
किसी एक अति दीन
पागल के धन वे।
हाँ, वहाँ रहता है, सिर-फिरा एक जन।
किन्तु आज इस रात बात अजीब है।
वही जो सिर फिरा पागल क़तई था
आज एकाएक वह
जागृत बुद्धि है, प्रज्वलत् धी है।
छोड़ सिरफिरापन,
बहुत ऊँचे गले से,
गा रहा कोई पद, कोई गान
आत्मोद्बोधमय!!
खूब भई,खूब भई,
जानता क्या वह भी कि
सैनिक प्रशासन है नगर में वाक़ई!
क्या उसकी बुद्धि भी जग गयी!
(करुण रसाल वे हृदय के स्वर हैं
गद्यानुवाद यहाँ उनका दिया जा रहा है)
"ओ मेरे आदर्शवादी मन,
ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,
अब तक क्या किया?
जीवन क्या जिया!!
उदरम्भरि बन अनात्म बन गये,
भूतों की शादी में क़नात-से तन गये,
किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर,
दुःखों के दाग़ों को तमग़ों-सा पहना,
अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,
असंग बुद्धि व अकेले में सहना,
ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया!!
बताओ तो किस-किसके लिए तुम दौड़ गये,
करुणा के दृश्यों से हाय! मुँह मोड़ गये,
बन गये पत्थर,
बहुत-बहुत ज़्यादा लिया,
दिया बहुत-बहुत कम,
मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम!!
लो-हित-पिता को घर से निकाल दिया,
जन-मन-करुणा-सी माँ को हंकाल दिया,
स्वार्थों के टेरियार कुत्तों को पाल लिया,
भावना के कर्तव्य--त्याग दिये,
हृदय के मन्तव्य--मार डाले!
बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,
तर्कों के हाथ उखाड़ दिये,
जम गये, जाम हुए, फँस गये,
अपने ही कीचड़ में धँस गये!!
विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में
आदर्श खा गये!
अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया,
ज़्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम..."
मेरा सिर गरम है,
इसीलिए गरम है।
सपनों में चलता है आलोचन,
विचारों के चित्रों की अवलि में चिन्तन।
निजत्व-माफ़ है बेचैन,
क्या करूँ, किससे कहूँ,
कहाँ जाऊँ, दिल्ली या उज्जैन?
वैदिक ऋषि शुनःशेप के
शापभ्रष्ट पिता अजीर्गत समान ही
व्यक्तित्व अपना ही, अपने से खोया हुआ
वही उसे अकस्मात् मिलता था रात में,
पागल था दिन में
सिर-फिरा विक्षिप्त मस्तिष्क।
हाय, हाय!
उसने भी यह क्या गा दिया,
यह उसने क्या नया ला दिया,
प्रत्यक्ष,
मैं खड़ा हो गया
किसी छाया मूर्ति-सा समक्ष स्वयं के
होने लगी बहस और
लगने लगे परस्पर तमाचे।
छिः पागलपन है,
वृथा आलोचन है।
गलियों में अन्धकार भयावह--
मानो मेरे कारण ही लग गया
मॉर्शल-लॉ वह,
मानो मेरी निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया,
मानो मेरे कारण ही दुर्घट
हुई यह घटना।
चक्र से चक्र लगा हुआ है....
जितना ही तीव्र है द्वन्द्व क्रियाओं घटनाओं का
बाहरी दुनिया में,
उतनी ही तेजी से भीतरी दुनिया में,
चलता है द्वन्द्व कि
फ़िक्र से फ़िक्र लगी हुई है।
आज उस पागल ने मेरी चैन भुला दी,
मेरी नींद गवाँ दी।
मैं इस बरगद के पास खड़ा हूँ।
मेरा यह चेहरा
घुलता है जाने किस अथाह गम्भीर, साँवले जल से,
झुके हुए गुमसुम टूटे हुए घरों के
तिमिर अतल से
घुलता है मन यह।
रात्रि के श्यामल ओस से क्षालित
कोई गुरू-गम्भीर महान् अस्तित्व
महकता है लगातार
मानो खँडहर-प्रसारों में उद्यान
गुलाब-चमेली के, रात्रि-तिमिर में,
महकते हों, महकते ही रहते हों हर पल।
किन्तु वे उद्यान कहाँ हैं,
अँधेरे में पता नहीं चलता।
मात्र सुगन्ध है सब ओर,
पर, उस महक--लहर में
कोई छिपी वेदना, कोई गुप्त चिन्ता
छटपटा रही है।