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अगहन की रात / महेन्द्र भटनागर

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तुम नहीं ; और अगहन की ठण्डी रात !

संध्या से ही सूना-सूना, मन बेहद भारी है,
मुरझाया-सा जीवन-शतदल, कैसी लाचारी है !

है जाने कितनी दूर सुनहरा प्रात !

खोकर सपनों का धन, आँखें बेबस बोझिल निर्धन
देख रही हैं भावी का पथ, भर-भर आँसू के कन,

डोल रहा अन्तर पीपल का-सा पात !

है दूर रोहिणी का आँचल, रोता मूक कलाधर
खोज रहा हर कोना, बिखरा जुन्हाई का सागर

किसको रे आज बताएँ मन की बात !