भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"अध्याय १४ / भाग २ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मृदुल कीर्ति |संग्रह=श्रीमदभगवदगीता / मृदुल की…)
 
पंक्ति 5: पंक्ति 5:
 
}}
 
}}
 
<poem>
 
<poem>
 +
<span class="upnishad_mantra">
 +
कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम्।
 +
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम्॥१४- १६॥
 +
</span>
 
फल ज्ञान विरागन कौ निर्मल,
 
फल ज्ञान विरागन कौ निर्मल,
 
सत करमन सों ही आवत है.
 
सत करमन सों ही आवत है.
 
रज, तामस, दुःख दारुण विषाद,
 
रज, तामस, दुःख दारुण विषाद,
 
अज्ञानी मनुज बनावत है
 
अज्ञानी मनुज बनावत है
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
सत्त्वात्संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च।
 +
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च॥१४- १७॥
 +
</span>
 
सत गुन सों ज्ञान, रजो गुन सों,
 
सत गुन सों ज्ञान, रजो गुन सों,
 
बिनु संशय लोभ ही विकसत है,
 
बिनु संशय लोभ ही विकसत है,
 
बिनु ज्ञान प्रमाद , तो मोह घनयो,
 
बिनु ज्ञान प्रमाद , तो मोह घनयो,
 
तामस गुन जीवहिं  पकरत हैं
 
तामस गुन जीवहिं  पकरत हैं
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
 +
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः॥१४- १८॥
 +
</span>
 
जिन सतगुन वृत्ति प्रधान जना,
 
जिन सतगुन वृत्ति प्रधान जना,
 
वे श्रेयस लोक ही जावत है,
 
वे श्रेयस लोक ही जावत है,
 
जिन राजस, मध्य, मनुज योनी,
 
जिन राजस, मध्य, मनुज योनी,
 
तिन तुच्छ सी योनी पावत है
 
तिन तुच्छ सी योनी पावत है
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
 +
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति॥१४- १९॥
 +
</span>
 
जेहि कालहिं दृष्टा तीनहूँ गुन,
 
जेहि कालहिं दृष्टा तीनहूँ गुन,
 
सों अन्य न करता देखे कोऊ,
 
सों अन्य न करता देखे कोऊ,
 
गुन ही तौ गुनान में बरतत हैं.
 
गुन ही तौ गुनान में बरतत हैं.
 
अस जानि, मोहे जाने  सोऊ
 
अस जानि, मोहे जाने  सोऊ
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्।
 +
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते॥१४- २०॥
 +
</span>
 
गुन तीनहूँ सों , जब देह परे,
 
गुन तीनहूँ सों , जब देह परे,
 
समरथ हुई जावति है नर की.
 
समरथ हुई जावति है नर की.
 
छुटे जन्म, ज़रा, ब्याधि मृत्यु,
 
छुटे जन्म, ज़रा, ब्याधि मृत्यु,
 
तिन पावैं कृपा करुनानिधि की
 
तिन पावैं कृपा करुनानिधि की
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
कैर्लिङ्गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो।
 +
किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते॥१४- २१॥
 +
</span>
 
अर्जुन उवाच
 
अर्जुन उवाच
 
गुन तीनहूँ सों जो होत परे ,
 
गुन तीनहूँ सों जो होत परे ,
पंक्ति 35: पंक्ति 54:
 
कथ कैसो करत आचार कहाँ ,
 
कथ कैसो करत आचार कहाँ ,
 
परे कैसे गुनान सों होत अहो
 
परे कैसे गुनान सों होत अहो
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
 +
न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति॥१४- २२॥
 +
</span>
 
जिन राजस, सत्व, तमो गुन के ,
 
जिन राजस, सत्व, तमो गुन के ,
 
गुन होत प्रवृत पर उन्मन हो,
 
गुन होत प्रवृत पर उन्मन हो,
 
तिन राग विराग न चाह रहे ,
 
तिन राग विराग न चाह रहे ,
 
लपटात न काहू सों तन-मन हो
 
लपटात न काहू सों तन-मन हो
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते।
 +
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते॥१४- २३॥
 +
</span>
 
गुन ही तौ गुनान में बरतत हैं,
 
गुन ही तौ गुनान में बरतत हैं,
 
साक्षी, निरपेक्ष उदास रहै,
 
साक्षी, निरपेक्ष उदास रहै,
 
अस जानि कदापि डिगत नाहीं,
 
अस जानि कदापि डिगत नाहीं,
 
तिनके ब्रज नंदन पास रहें
 
तिनके ब्रज नंदन पास रहें
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।
 +
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः॥१४- २४॥
 +
</span>
 
जिन पाथर कांकर ,  सुबरन में,
 
जिन पाथर कांकर ,  सुबरन में,
 
निंदा-स्तुति,  सुख-दुखन में,
 
निंदा-स्तुति,  सुख-दुखन में,
 
अप्रिय -प्रिय माहीं धीर धरै,
 
अप्रिय -प्रिय माहीं धीर धरै,
 
सम भाव रहै , सब भावन में
 
सम भाव रहै , सब भावन में
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
 +
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते॥१४- २५॥
 +
</span>
 
अपमान व् मान समान लगै,
 
अपमान व् मान समान लगै,
 
कर्तापन भाव विहीन रहै,
 
कर्तापन भाव विहीन रहै,
 
सगरे ही गुनान सों होत परे,
 
सगरे ही गुनान सों होत परे,
 
रिपु मित्र में भाव समान रहै
 
रिपु मित्र में भाव समान रहै
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।
 +
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते॥१४- २६॥
 +
</span>
 
व्यभिचार विहीन जो भक्ति करै,
 
व्यभिचार विहीन जो भक्ति करै,
 
नित नित्य निरंतर मोहे भजै,
 
नित नित्य निरंतर मोहे भजै,
 
गुन तीन गुनान सों होत परे ,
 
गुन तीन गुनान सों होत परे ,
 
सत भक्त महान निरंतर मोहे रुचै
 
सत भक्त महान निरंतर मोहे रुचै
 
+
<span class="upnishad_mantra">
 +
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
 +
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च॥१४- २७॥
 +
</span>
 
अविनासी ब्रह्म परम प्रभु कौ,
 
अविनासी ब्रह्म परम प्रभु कौ,
 
एकमेव अखंड आनंद सुधा ,
 
एकमेव अखंड आनंद सुधा ,

01:32, 11 जनवरी 2010 का अवतरण


कर्मणः सुकृतस्याहुः सात्त्विकं निर्मलं फलम्।
रजसस्तु फलं दुःखमज्ञानं तमसः फलम्॥१४- १६॥

फल ज्ञान विरागन कौ निर्मल,
सत करमन सों ही आवत है.
रज, तामस, दुःख दारुण विषाद,
अज्ञानी मनुज बनावत है

सत्त्वात्संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च।
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च॥१४- १७॥

सत गुन सों ज्ञान, रजो गुन सों,
बिनु संशय लोभ ही विकसत है,
बिनु ज्ञान प्रमाद , तो मोह घनयो,
तामस गुन जीवहिं पकरत हैं

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः॥१४- १८॥

जिन सतगुन वृत्ति प्रधान जना,
वे श्रेयस लोक ही जावत है,
जिन राजस, मध्य, मनुज योनी,
तिन तुच्छ सी योनी पावत है

नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति॥१४- १९॥

जेहि कालहिं दृष्टा तीनहूँ गुन,
सों अन्य न करता देखे कोऊ,
गुन ही तौ गुनान में बरतत हैं.
अस जानि, मोहे जाने सोऊ

गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान्।
जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते॥१४- २०॥

गुन तीनहूँ सों , जब देह परे,
समरथ हुई जावति है नर की.
छुटे जन्म, ज़रा, ब्याधि मृत्यु,
तिन पावैं कृपा करुनानिधि की

कैर्लिङ्गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो।
किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते॥१४- २१॥

अर्जुन उवाच
गुन तीनहूँ सों जो होत परे ,
तिन कौ का लक्षण होत कहो,
कथ कैसो करत आचार कहाँ ,
परे कैसे गुनान सों होत अहो

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति॥१४- २२॥

जिन राजस, सत्व, तमो गुन के ,
गुन होत प्रवृत पर उन्मन हो,
तिन राग विराग न चाह रहे ,
लपटात न काहू सों तन-मन हो

उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते॥१४- २३॥

गुन ही तौ गुनान में बरतत हैं,
साक्षी, निरपेक्ष उदास रहै,
अस जानि कदापि डिगत नाहीं,
तिनके ब्रज नंदन पास रहें

समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः॥१४- २४॥

जिन पाथर कांकर , सुबरन में,
निंदा-स्तुति, सुख-दुखन में,
अप्रिय -प्रिय माहीं धीर धरै,
सम भाव रहै , सब भावन में

मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते॥१४- २५॥

अपमान व् मान समान लगै,
कर्तापन भाव विहीन रहै,
सगरे ही गुनान सों होत परे,
रिपु मित्र में भाव समान रहै

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते॥१४- २६॥

व्यभिचार विहीन जो भक्ति करै,
नित नित्य निरंतर मोहे भजै,
गुन तीन गुनान सों होत परे ,
सत भक्त महान निरंतर मोहे रुचै

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च॥१४- २७॥

अविनासी ब्रह्म परम प्रभु कौ,
एकमेव अखंड आनंद सुधा ,
मैं ही तौ आश्रय हूँ इनकौ ,
मैं धर्म सनातन शुद्ध विधा