"अध्याय १७ / भाग १ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति" के अवतरणों में अंतर
Pratishtha (चर्चा | योगदान) (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मृदुल कीर्ति |संग्रह=श्रीमदभगवदगीता / मृदुल की…) |
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) |
||
(एक अन्य सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया) | |||
पंक्ति 4: | पंक्ति 4: | ||
|संग्रह=श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति | |संग्रह=श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति | ||
}} | }} | ||
+ | {{KKCatBrajBhashaRachna}} | ||
<poem> | <poem> | ||
+ | <span class="upnishad_mantra"> | ||
+ | ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः। | ||
+ | तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः॥१७- १॥ | ||
+ | </span> | ||
अर्जुन उवाच | अर्जुन उवाच | ||
विधि शास्त्रन की जिन त्याग दई, | विधि शास्त्रन की जिन त्याग दई, | ||
पंक्ति 10: | पंक्ति 15: | ||
मधुसूदन! सत, राजस, तम के, | मधुसूदन! सत, राजस, तम के, | ||
गुण कौन प्रधान वे होवत हैं. | गुण कौन प्रधान वे होवत हैं. | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा। | ||
+ | सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु॥१७- २॥ | ||
+ | </span> | ||
श्री भगवानुवाच | श्री भगवानुवाच | ||
मानव की मूल सुभाव जनित, | मानव की मूल सुभाव जनित, | ||
पंक्ति 16: | पंक्ति 24: | ||
राजस, तामस, सत इति त्रिविधा, | राजस, तामस, सत इति त्रिविधा, | ||
मधुसूदन पार्थ सों सत्व कही. | मधुसूदन पार्थ सों सत्व कही. | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत। | ||
+ | श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः॥१७- ३॥ | ||
+ | </span> | ||
हिय की श्रद्धा सब मानुष की, | हिय की श्रद्धा सब मानुष की, | ||
जस होत है मन तस होत यथा, | जस होत है मन तस होत यथा, | ||
जस भाव धरे हिय मांहीं जो, | जस भाव धरे हिय मांहीं जो, | ||
तस मानुष की तस भाव प्रथा. | तस मानुष की तस भाव प्रथा. | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः। | ||
+ | प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः॥१७- ४॥ | ||
+ | </span> | ||
जन सात्विक पूजत देवन को, | जन सात्विक पूजत देवन को, | ||
जन राजस पूजत असुरन को. | जन राजस पूजत असुरन को. | ||
जन तामस पूजत भूतन को, | जन तामस पूजत भूतन को, | ||
जस भाव लगावत तस मन को | जस भाव लगावत तस मन को | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः। | ||
+ | दम्भाहंकारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः॥१७- ५॥ | ||
+ | </span> | ||
जिन शास्त्र विधान विहीन भये, | जिन शास्त्र विधान विहीन भये, | ||
तप घोर तपैं बिनु नियमन के. | तप घोर तपैं बिनु नियमन के. | ||
बल दर्पहिं दंभ सों युक्त भये , | बल दर्पहिं दंभ सों युक्त भये , | ||
वश कामहिं राग के बंधन के | वश कामहिं राग के बंधन के | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः। | ||
+ | मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान्॥१७- ६॥ | ||
+ | </span> | ||
जिन देह तपाय के देहिन में, | जिन देह तपाय के देहिन में, | ||
जो ब्रह्म बसयो, है कलेश दियौ. | जो ब्रह्म बसयो, है कलेश दियौ. | ||
वृति आसुरी के तिन जानि ताहि , | वृति आसुरी के तिन जानि ताहि , | ||
जिन देह को क्लेश विशेष दियौ | जिन देह को क्लेश विशेष दियौ | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः। | ||
+ | यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु॥१७- ७॥ | ||
+ | </span> | ||
तप, दान, यज्ञ, यश, भिजन भी, | तप, दान, यज्ञ, यश, भिजन भी, | ||
सब तीनहि विधि के होवत हैं, | सब तीनहि विधि के होवत हैं, | ||
जस होत प्रकृति, तस होत रूचि, | जस होत प्रकृति, तस होत रूचि, | ||
विधि को अस नियमन होवत है | विधि को अस नियमन होवत है | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः। | ||
+ | रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः॥१७- ८॥ | ||
+ | </span> | ||
बल, प्रीति, आयु, आरोग्य, बुद्धि, | बल, प्रीति, आयु, आरोग्य, बुद्धि, | ||
आहार सों वर्धन होवत है. | आहार सों वर्धन होवत है. | ||
जन सात्विक, सात्विक अन्न गहै, | जन सात्विक, सात्विक अन्न गहै, | ||
जस मन तस अन्न ही सेवत है | जस मन तस अन्न ही सेवत है | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः। | ||
+ | आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः॥१७- ९॥ | ||
+ | </span> | ||
कटु, अम्ल, लवण, तीखे, दाहक | कटु, अम्ल, लवण, तीखे, दाहक | ||
दुःख, रोग, शोक, के वर्द्धक हैं. | दुःख, रोग, शोक, के वर्द्धक हैं. | ||
अस रूखे,तीक्ष्ण गरम भोजन | अस रूखे,तीक्ष्ण गरम भोजन | ||
जन राजस के हिय हर्षक हैं | जन राजस के हिय हर्षक हैं | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्। | ||
+ | उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्॥१७- १०॥ | ||
+ | </span> | ||
रसहीन, अधपको और बासी | रसहीन, अधपको और बासी | ||
उच्छिष्ठ, अपावन, गंध बिना, | उच्छिष्ठ, अपावन, गंध बिना, | ||
तामस जन को अति प्रिय होत बहु, | तामस जन को अति प्रिय होत बहु, | ||
सब खावति चाव सों बंध बिना | सब खावति चाव सों बंध बिना | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते। | ||
+ | यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः॥१७- ११॥ | ||
+ | </span> | ||
विधि नियमन सों जिन यज्ञ किये, | विधि नियमन सों जिन यज्ञ किये, | ||
फल चाह न नैकु हिये में लिए. | फल चाह न नैकु हिये में लिए. | ||
मन साध के ब्रह्म को ध्यान किये, | मन साध के ब्रह्म को ध्यान किये, | ||
तस यज्ञन, सात्विक जानि प्रिये | तस यज्ञन, सात्विक जानि प्रिये | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्। | ||
+ | इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्॥१७- १२॥ | ||
+ | </span> | ||
सुन अर्जुन! जिन अभिमान किये, | सुन अर्जुन! जिन अभिमान किये, | ||
फल चाहन लक्ष्य हिये में लिए. | फल चाहन लक्ष्य हिये में लिए. | ||
जिन चाह धारि मन यज्ञ किये, | जिन चाह धारि मन यज्ञ किये, | ||
तस यज्ञन राजस जान प्रिये | तस यज्ञन राजस जान प्रिये | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्। | ||
+ | श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते॥१७- १३॥ | ||
+ | </span> | ||
जिन शास्त्र विहीनन यज्ञ किये, | जिन शास्त्र विहीनन यज्ञ किये, | ||
श्रद्धा बिनु मन्त्र न दान दिए, | श्रद्धा बिनु मन्त्र न दान दिए, | ||
चित्त नैकु न भक्ति को भाव हिये, | चित्त नैकु न भक्ति को भाव हिये, | ||
तस यज्ञ को तामान जान प्रिये | तस यज्ञ को तामान जान प्रिये | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्। | ||
+ | ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥१७- १४॥ | ||
+ | </span> | ||
द्विज, देव, गुरु, ज्ञानी जन कौ. | द्विज, देव, गुरु, ज्ञानी जन कौ. | ||
ज पूजत और हिय आपुनि में. | ज पूजत और हिय आपुनि में. | ||
धरि ब्रह्मचर्य सात्विक शुचिता, | धरि ब्रह्मचर्य सात्विक शुचिता, | ||
तप तन कौ वही ऋत अरथन में | तप तन कौ वही ऋत अरथन में | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्। | ||
+ | स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते॥१७- १५॥ | ||
+ | </span> | ||
प्रिय हितकारी उद्वेग हीन , | प्रिय हितकारी उद्वेग हीन , | ||
ऋत सत्य वचन कौ सत जानौ. | ऋत सत्य वचन कौ सत जानौ. | ||
स्वाध्याय भजन बिनु संशय के | स्वाध्याय भजन बिनु संशय के | ||
तप वाणी को होवत, सत मानौ | तप वाणी को होवत, सत मानौ | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः। | ||
+ | भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते॥१७- १६॥ | ||
+ | </span> | ||
मन कौ सुख शांति कौ भाव रुचै, | मन कौ सुख शांति कौ भाव रुचै, | ||
प्रभु, चित्त माहीं दिन रैन रह्यौ . | प्रभु, चित्त माहीं दिन रैन रह्यौ . | ||
मन कौ संयम और पावनता, | मन कौ संयम और पावनता, | ||
मानस तप त्याग है जात कह्यौ | मानस तप त्याग है जात कह्यौ | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः। | ||
+ | अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते॥१७- १७॥ | ||
+ | </span> | ||
फल चाह हीन जो निष्कामी , | फल चाह हीन जो निष्कामी , | ||
श्रद्धा सों तप अस साधत है. | श्रद्धा सों तप अस साधत है. | ||
तन, वाणी, मन , धन को अस तप, | तन, वाणी, मन , धन को अस तप, | ||
ही तप सात्विक कहलावत है | ही तप सात्विक कहलावत है | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्। | ||
+ | क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्॥१७- १८॥ | ||
+ | </span> | ||
आदर, पूजा, सत्कार, मान हित, | आदर, पूजा, सत्कार, मान हित, | ||
जो तप यज्ञ कियौ प्रानी, | जो तप यज्ञ कियौ प्रानी, | ||
यदि दंभ प्रधान कौ भाव हिया, | यदि दंभ प्रधान कौ भाव हिया, | ||
अस तप राजस मानत ज्ञानी | अस तप राजस मानत ज्ञानी | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः। | ||
+ | परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्॥१७- १९॥ | ||
+ | </span> | ||
हठ मूढ़ मता मन सों तप को , | हठ मूढ़ मता मन सों तप को , | ||
यदि कोऊ मानु करत रह्यौ. | यदि कोऊ मानु करत रह्यौ. | ||
धरि भाव अनिष्ट कौ, दूसर कौ. | धरि भाव अनिष्ट कौ, दूसर कौ. | ||
अस तप, तामस तप जात कह्यौ | अस तप, तामस तप जात कह्यौ | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे। | ||
+ | देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥१७- २०॥ | ||
+ | </span> | ||
उपकार करै बिनु बदले ही, | उपकार करै बिनु बदले ही, | ||
सत भावन दान जो देत यथा, | सत भावन दान जो देत यथा, | ||
अस दान ही सांचे अरथन में, | अस दान ही सांचे अरथन में, | ||
सात्विक दान की, सत्य प्रथा | सात्विक दान की, सत्य प्रथा | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः। | ||
+ | दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्॥१७- २१॥ | ||
+ | </span> | ||
जो दान कलेश दुखी मन सों, | जो दान कलेश दुखी मन सों, | ||
हित, फल पावन को होवत हैं, | हित, फल पावन को होवत हैं, | ||
अस दान ही सांचे अरथन में, | अस दान ही सांचे अरथन में, | ||
हे अर्जुन! राजस होवत हैं. | हे अर्जुन! राजस होवत हैं. | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते। | ||
+ | असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्॥१७- २२॥ | ||
+ | </span> | ||
बिनु मान कुपात्र कौ दान दियौ, | बिनु मान कुपात्र कौ दान दियौ, | ||
हिय माहीं आदर नैकु नहीं. | हिय माहीं आदर नैकु नहीं. | ||
अस दान तौ अर्जुन! तामस है, | अस दान तौ अर्जुन! तामस है, | ||
अस दान कौ अरथ न नैकु कहीं | अस दान कौ अरथ न नैकु कहीं | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | ॐतत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः। | ||
+ | ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा॥१७- २३॥ | ||
+ | </span> | ||
इति तत् सत ॐ त्रिविध रूपा, | इति तत् सत ॐ त्रिविध रूपा, | ||
अथ ब्रह्म कौ नाम है जात कह्यौ, | अथ ब्रह्म कौ नाम है जात कह्यौ, | ||
यज्ञादिक वेदन ब्राह्मण जो, | यज्ञादिक वेदन ब्राह्मण जो, | ||
अति आदि सृष्टि में प्रगट भयौ | अति आदि सृष्टि में प्रगट भयौ | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः। | ||
+ | प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्॥१७- २४॥ | ||
+ | </span> | ||
तप, दान, यज्ञ के करमन में, | तप, दान, यज्ञ के करमन में, | ||
अति आदि में ॐ उचार है. | अति आदि में ॐ उचार है. | ||
विधि ज्ञाता और वेदज्ञ सबहिं, | विधि ज्ञाता और वेदज्ञ सबहिं, | ||
वेदोक्त विधान बतावत हैं | वेदोक्त विधान बतावत हैं | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः। | ||
+ | दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः॥१७- २५॥ | ||
+ | </span> | ||
जग ब्रह्म सों पूरित, ब्रह्म को हैं, | जग ब्रह्म सों पूरित, ब्रह्म को हैं, | ||
धरि भाव, करम निष्काम करैं. | धरि भाव, करम निष्काम करैं. | ||
जिन मोक्ष की चाह घनेरी हिया, | जिन मोक्ष की चाह घनेरी हिया, | ||
तप, दान, यज्ञ प्रभु नाम करैं | तप, दान, यज्ञ प्रभु नाम करैं | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते। | ||
+ | प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते॥१७- २६॥ | ||
+ | </span> | ||
सत ब्रह्म कौ नाम है श्रेय महे, | सत ब्रह्म कौ नाम है श्रेय महे, | ||
सत करमन माहीं प्रयुक्त अहे. | सत करमन माहीं प्रयुक्त अहे. | ||
सत श्रेय परम सर्वोच्च पार्थ! | सत श्रेय परम सर्वोच्च पार्थ! | ||
तत् सत सों जग संयुक्त रहे | तत् सत सों जग संयुक्त रहे | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते। | ||
+ | कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते॥१७- २७॥ | ||
+ | </span> | ||
तप, दान, यज्ञ, सत वास करैं, | तप, दान, यज्ञ, सत वास करैं, | ||
बिनु संशय के, सत होत महे. | बिनु संशय के, सत होत महे. | ||
अस ब्रह्म हेतु जो करम भयौ, | अस ब्रह्म हेतु जो करम भयौ, | ||
निश्चय सत होत, ये सत्य कहे | निश्चय सत होत, ये सत्य कहे | ||
− | + | <span class="upnishad_mantra"> | |
+ | अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्। | ||
+ | असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥१७- २८॥ | ||
+ | </span> | ||
बिनु श्रद्धा के तप, दान, हवन, | बिनु श्रद्धा के तप, दान, हवन, | ||
सब करम असत ही होवत हैं. | सब करम असत ही होवत हैं. |
11:04, 7 जुलाई 2015 के समय का अवतरण
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः॥१७- १॥
अर्जुन उवाच
विधि शास्त्रन की जिन त्याग दई,
देवन कौ श्रद्धा सों सेवत हैं.
मधुसूदन! सत, राजस, तम के,
गुण कौन प्रधान वे होवत हैं.
त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा।
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु॥१७- २॥
श्री भगवानुवाच
मानव की मूल सुभाव जनित,
यहि तीन वृत्तियाँ होत मही.
राजस, तामस, सत इति त्रिविधा,
मधुसूदन पार्थ सों सत्व कही.
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः॥१७- ३॥
हिय की श्रद्धा सब मानुष की,
जस होत है मन तस होत यथा,
जस भाव धरे हिय मांहीं जो,
तस मानुष की तस भाव प्रथा.
यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः॥१७- ४॥
जन सात्विक पूजत देवन को,
जन राजस पूजत असुरन को.
जन तामस पूजत भूतन को,
जस भाव लगावत तस मन को
अशास्त्रविहितं घोरं तप्यन्ते ये तपो जनाः।
दम्भाहंकारसंयुक्ताः कामरागबलान्विताः॥१७- ५॥
जिन शास्त्र विधान विहीन भये,
तप घोर तपैं बिनु नियमन के.
बल दर्पहिं दंभ सों युक्त भये ,
वश कामहिं राग के बंधन के
कर्षयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तान्विद्ध्यासुरनिश्चयान्॥१७- ६॥
जिन देह तपाय के देहिन में,
जो ब्रह्म बसयो, है कलेश दियौ.
वृति आसुरी के तिन जानि ताहि ,
जिन देह को क्लेश विशेष दियौ
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं शृणु॥१७- ७॥
तप, दान, यज्ञ, यश, भिजन भी,
सब तीनहि विधि के होवत हैं,
जस होत प्रकृति, तस होत रूचि,
विधि को अस नियमन होवत है
आयुःसत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः।
रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृद्या आहाराः सात्त्विकप्रियाः॥१७- ८॥
बल, प्रीति, आयु, आरोग्य, बुद्धि,
आहार सों वर्धन होवत है.
जन सात्विक, सात्विक अन्न गहै,
जस मन तस अन्न ही सेवत है
कट्वम्ललवणात्युष्णतीक्ष्णरूक्षविदाहिनः।
आहारा राजसस्येष्टा दुःखशोकामयप्रदाः॥१७- ९॥
कटु, अम्ल, लवण, तीखे, दाहक
दुःख, रोग, शोक, के वर्द्धक हैं.
अस रूखे,तीक्ष्ण गरम भोजन
जन राजस के हिय हर्षक हैं
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितं च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्॥१७- १०॥
रसहीन, अधपको और बासी
उच्छिष्ठ, अपावन, गंध बिना,
तामस जन को अति प्रिय होत बहु,
सब खावति चाव सों बंध बिना
अफलाकाङ्क्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते।
यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः॥१७- ११॥
विधि नियमन सों जिन यज्ञ किये,
फल चाह न नैकु हिये में लिए.
मन साध के ब्रह्म को ध्यान किये,
तस यज्ञन, सात्विक जानि प्रिये
अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत्।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम्॥१७- १२॥
सुन अर्जुन! जिन अभिमान किये,
फल चाहन लक्ष्य हिये में लिए.
जिन चाह धारि मन यज्ञ किये,
तस यज्ञन राजस जान प्रिये
विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम्।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते॥१७- १३॥
जिन शास्त्र विहीनन यज्ञ किये,
श्रद्धा बिनु मन्त्र न दान दिए,
चित्त नैकु न भक्ति को भाव हिये,
तस यज्ञ को तामान जान प्रिये
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम्।
ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते॥१७- १४॥
द्विज, देव, गुरु, ज्ञानी जन कौ.
ज पूजत और हिय आपुनि में.
धरि ब्रह्मचर्य सात्विक शुचिता,
तप तन कौ वही ऋत अरथन में
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्।
स्वाध्यायाभ्यसनं चैव वाङ्मयं तप उच्यते॥१७- १५॥
प्रिय हितकारी उद्वेग हीन ,
ऋत सत्य वचन कौ सत जानौ.
स्वाध्याय भजन बिनु संशय के
तप वाणी को होवत, सत मानौ
मनः प्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः।
भावसंशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते॥१७- १६॥
मन कौ सुख शांति कौ भाव रुचै,
प्रभु, चित्त माहीं दिन रैन रह्यौ .
मन कौ संयम और पावनता,
मानस तप त्याग है जात कह्यौ
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरैः।
अफलाकाङ्क्षिभिर्युक्तैः सात्त्विकं परिचक्षते॥१७- १७॥
फल चाह हीन जो निष्कामी ,
श्रद्धा सों तप अस साधत है.
तन, वाणी, मन , धन को अस तप,
ही तप सात्विक कहलावत है
सत्कारमानपूजार्थं तपो दम्भेन चैव यत्।
क्रियते तदिह प्रोक्तं राजसं चलमध्रुवम्॥१७- १८॥
आदर, पूजा, सत्कार, मान हित,
जो तप यज्ञ कियौ प्रानी,
यदि दंभ प्रधान कौ भाव हिया,
अस तप राजस मानत ज्ञानी
मूढग्राहेणात्मनो यत्पीडया क्रियते तपः।
परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम्॥१७- १९॥
हठ मूढ़ मता मन सों तप को ,
यदि कोऊ मानु करत रह्यौ.
धरि भाव अनिष्ट कौ, दूसर कौ.
अस तप, तामस तप जात कह्यौ
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्॥१७- २०॥
उपकार करै बिनु बदले ही,
सत भावन दान जो देत यथा,
अस दान ही सांचे अरथन में,
सात्विक दान की, सत्य प्रथा
यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम्॥१७- २१॥
जो दान कलेश दुखी मन सों,
हित, फल पावन को होवत हैं,
अस दान ही सांचे अरथन में,
हे अर्जुन! राजस होवत हैं.
अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम्॥१७- २२॥
बिनु मान कुपात्र कौ दान दियौ,
हिय माहीं आदर नैकु नहीं.
अस दान तौ अर्जुन! तामस है,
अस दान कौ अरथ न नैकु कहीं
ॐतत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा॥१७- २३॥
इति तत् सत ॐ त्रिविध रूपा,
अथ ब्रह्म कौ नाम है जात कह्यौ,
यज्ञादिक वेदन ब्राह्मण जो,
अति आदि सृष्टि में प्रगट भयौ
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम्॥१७- २४॥
तप, दान, यज्ञ के करमन में,
अति आदि में ॐ उचार है.
विधि ज्ञाता और वेदज्ञ सबहिं,
वेदोक्त विधान बतावत हैं
तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः॥१७- २५॥
जग ब्रह्म सों पूरित, ब्रह्म को हैं,
धरि भाव, करम निष्काम करैं.
जिन मोक्ष की चाह घनेरी हिया,
तप, दान, यज्ञ प्रभु नाम करैं
सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते॥१७- २६॥
सत ब्रह्म कौ नाम है श्रेय महे,
सत करमन माहीं प्रयुक्त अहे.
सत श्रेय परम सर्वोच्च पार्थ!
तत् सत सों जग संयुक्त रहे
यज्ञे तपसि दाने च स्थितिः सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते॥१७- २७॥
तप, दान, यज्ञ, सत वास करैं,
बिनु संशय के, सत होत महे.
अस ब्रह्म हेतु जो करम भयौ,
निश्चय सत होत, ये सत्य कहे
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥१७- २८॥
बिनु श्रद्धा के तप, दान, हवन,
सब करम असत ही होवत हैं.
इहि लोक में न, परलोकन में,
कहूँ नाहीं सकारथ होवत हैं