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अध्याय २ / भाग २ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति

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सो अर्जुन! दृढ़ निश्चय करिकै ,
उठ , जुद्ध कौ अब तत्पर हुइ जा .
यदि मरै स्वर्ग निश्चय मिलिहै,
यदि जिए धरा को नृप हुइ जा

जय और पराजय लाभ हानि ,
सुख दुःख में भाव समत्व भयो,
यहि भावः सों जुद्ध करौ अर्जुन!
तो नैकु न पाप सों युक्त भयो

यहि ज्ञान परक सब ज्ञान कहयो,
निष्काम परक अब पार्थ सुनौ,
अथ कर्म के बंध विनाश करौ ,
निष्काम कौ योग करौ व् गुनौ

निष्काम करम कौ योग महा,
फल रूप को दोष भी होत नहीं,
भावः सिन्धु तरति हैं जन सोऊ,
भय जन्म मरन मिटहैं सबहीं

निष्कामहूँ मारग कुरुनन्दन ,
निश्चय मति एक ही होत तथा.
बिनु ज्ञान जनान सकामी की,
मति भेद अनंता होत यथा

जिन होत सकामी तिन जन की,
फल रूप में प्रीति प्रतीति घनी,
तिन भोग करम जीवन मृत्यु ,
पुनि आवागमन की रीति बनी

फल करमन कौ ऐश्वर्य घन्यो,
अविवेकी जन कौ मोहत है,
मधु बानी माहीं कहत जग में ,
यही मांहीं सबहीं सुख होवत हैं

जिन भोगन माहीं प्रतीति घनी,
तिनको यहि बानी मोहत है,
मति नैकु न होवत निर्णय की,
तिन मिथ्य प्रलोभन सोहत है

सब वेद प्रकाशक हैं जग में,
तू अर्जुन निष्कामी हुइ जा.
बन योग-क्षेम सुख-दुःख विहीन,
नित स्थित आत्म रमण हुइ जा

परिपूरण जलनिधि जाहि मिलै,
तिन कौन प्रयोजन छोटन सों.
अथ ब्रह्म ज्ञान जिन विप्रन कौ,
वे का करिबौ, इन वेदन सों

अधिकार तेरौ बस करमन में,
फल करमन में नैकहूँ नाहीं .
करमन में तबहूँ प्रीति रहै,
अकर्मठता सों नेह नहीं

आसक्ति त्याग धनञ्जय हे !
तू सिद्धि असिद्धिन सम हुइ जा .
योग-स्थित भाव समत्व हिया,
धरि भाव हिया तू जुद्ध में जा

जिन बुद्धि योग सों कर्म सकाम,
करैं अति तुच्छ हैं , दीन वही.
जिन बुद्धि समत्व सहाय लियौ,
किरपा सों कृपालु के हीन नहीं

जिन बुद्धि समत्व , वे पुण्य पाप ,
बंधन मांहीं लपटात नहीं,
जिन बुद्धि समत्व सों योग भयौ,
जना पावति ब्रह्म विराट वही

अस बुद्धि योग सों ज्ञानी जना,
फल करमन बंधन सों छुटीहैं
अथ जनम के बंधन छूट अमर
पद पावै परम प्रभु सों मिलिहैं

जेहि काल मोह के दल-दल सों
हे अर्जुन  !बुद्धि तोरी उबरै
तब पायौ विराग यथारथ में,
यहि ज्ञान सों ही तौ जनम संवरे

हे अर्जुन! जब तेरी मति को,
सिद्धांत विविध भरमावत हों,
तब ब्रह्म को रूप अचल स्थिर ,
करि चित्त में योग कौ साधत हैं

अर्जुन उवाच
हे केशव! स्थित प्रज्ञ कहाँ ?
कब कैसे बैठे और बोलै ?
का बात विशेषहूँ होत कहौ?
का लक्षण और कैसे डोलै?

सुनि अर्जुन! स्थित प्रज्ञ जना,
मन मांही बसी जब चाह तजै.
तब आतमा से हू आतमा में,
संतुष्ट, कौ स्थित प्रज्ञ कहैं

सुख दुःखन बिनु उद्वेग रहै,
भय राग क्रोध सों अज्ञ जना.
और बीत गयी स्पर्हा भी
अस मुनि ही स्थित प्रज्ञ मना

बहु भांति सनेह विहीन रहैं
तबहूँ नाहीं रागहिं द्वेष करें,
शुभ और अशुभ सम भाव हिया,
वही स्थिर बुद्धि विशेष नरे

जस कच्छप अंग समेट त है,
इन्द्रिन कौ इन्द्रिन विषयन सौं,
तस लेत समेट महा ज्ञानी
और स्थिर बुद्धि वही जन सों

सब राग विनासन होत नहीं,
पर होत परे वे विषयन सों.
पर इनके राग परे हुइ के
पर ब्रह्महिं लय होवत मन सों

नित यज्ञ करैं, तिन ज्ञानिन कौ
भी मन प्रमथित हुइ जात कभी.
इन इन्द्रिन सों सब हारि गए .
मति ज्ञानिहूँ की हरि लेत सभी

वश मांहीं करै तिन इन्द्रिन कौ,
फिरि चित्त समाहित होत जना.
अथ मोरे परायण होवत जो,
अचला चित संयत होत मना

जिन चित्त मांही विषयन चिंतन,
धरि विषयन में आसक्ति घनी.
आसक्ति सों अनुराग, राग में ,
बाधा क्रोध, निमित्त बनी

पुनि क्रोध सों ही अविवेक बढ्यो,
अविवेक सों सुमिरन क्षीण भयो.
पुनि ज्ञान विवेक विनाशन सों ,
सब श्रेयस साधन हीन भयो

जिनके मन अंतर्मन हे अर्जुन!
बहु रागहिं द्वेशन मुक्त भये,
तिन इन्द्रिय भोगन भोग के हूँ ,
निज पावनता सों युक्त भये

जिनके हिय मांही पावनता,
तिनके दुःख और उद्वेग गए,
जिनके हिय हरषित तासु मति ,
बिनु संशय संयत वेगि भये

जिन साधन हीन तो बुद्धि कहाँ?,
और बुद्धिहीन के भाव कहाँ?
जिन भावहीन तिन शांति हीन,
बिनु शांति भाव सुख भाव कहाँ?

बहु विषयन में इन्द्रिय विचरे,
जेहि इन्द्रिय सों मन मेल करे.
वही एक हरन मति ऐसी करै ,
जस वायु जल माहीं नाव हरे

जेहि मानुष की हे! महाबाहो !
सब इन्द्रिय, इन्द्रिन विषयन को,
करै वश में स्थितप्रज्ञ वही,
वही अतिशय प्रिय मधुसूदन को

जो रात है भौतिक प्रानिन की,
सो प्रात है यौगिक योगन की,
जो प्रात है ऐहिक जन-जन की,
सो रात है यौगिक योगन की

बहु भांति विविध सब नद नदियाँ ,
जस सागर माहीं समावत हैं,
तस स्थित प्रज्ञ भी काम विहीन हो,
शांति परम अति पावत है

जो मानुष ममता काम अहंता,
त्याग सों निस्पृह होवत है,
वही पावै परम परमेश्वर को,
अथ शांति परम कौ सेवत है

हे अर्जुन! ब्रह्म समाहित जो,
तस मानुष की यही गति है,
नाहीं मोहित होत मरण काले,
और ब्रह्म में होत प्रतिष्ठित है