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अध्याय ४ / भाग १ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति

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चतुर्थो अध्याय
अति आदि कल्प कौ योग अमर,
श्री कृष्ण कहयो, यहि सूरज सों;
फिर सूरज आपुनि सुत मनु सों,
मनु इक्षवाकु पुनि सुत निज सों

यहि रीति सों योग कौ मर्म महा,
राजर्षिंन कौ विदित भयौ.
बहु काल सों योग यहि अर्जुन,
इह लोक सों लोप-विलुप्त भयौ

यहि मर्म पुरातन, योग महा,
हे अर्जुन! मैं तोसों कहिबौ.
तू मेरौ सखा, प्रिय भक्त महा,
निज आपुनि बानी सों कहिबौ

अर्जुन उवाच
जन्में है आप अबहीं भगवन ,
और सूर्य को जन्म पुरातन है,
सों कैसे समझूँ हे माधव!
यहि योग तौ आदि सनातन है

श्री कृष्ण उवाच
सुनि अर्जुन! तोरे और मोरे,
बहु जन्म भये पर ज्ञात नहीं.
सबहीं तू जानाति नाहीं पार्थ,
और मोसों कछु अज्ञात नहीं

अविनासी सरूप अजन्मा हूँ,
सब प्रानिन के हित ब्रह्मा हूँ,
आपुनि प्रकृति वश मैं करिकै,
माया के योग सों जन्मा हूँ

जब धर्म धरा पे नसावत है,
अधर्महूँ पाँव पसावत है,
तब धरनी-धर तन धारे धरा पर ,
धर्म को आनि बचावत हैं

फिर साधुन के उद्धारण कौ,
और दुष्ट दलन संहारण कौ,
युग मांहीं धरम प्रसारण कौ.
प्रगटत हूँ सृष्टि संवारण कौ

हे अर्जुन! मोरे जनम करम,
तौ दिव्य, जो अथ जाने कोऊ .
तिन जनम -मरण मिटी जाति सबहिं,
मोहे जानि, के मोहे पावै सोऊ

भय राग व् क्रोध विहीन भये,
शरणागत , लीन अनूप भये.
तप भक्ति, ज्ञान पुनीत जना,
मोहे पाय के मोरे सरूप भये

हे अर्जुन! मोरे सरूपहीं कौ,
जो जैसो भजे, मैं तैसे भजूं ,
जेहि ज्ञानी मर्म को जानि भये ,
मग मोरे चलें , तिन नाहीं तजूं

इहि लोक मांहीं मानुष करमन,
फल हेतु पूजते देवन कौ,
जन पाय रहे रिद्धि-सिद्धि ,
सों, वेग सों पूजत देवन कौ

सब ब्रह्मण ,क्षत्रिय, वैश्य ,शूद्र
गुण-कर्म विभाजक करता मैं,
जग रच्यो रचयिता अविनाशी,
कर्ता हूँ , तथापि अकर्ता मैं

बिनु स्पर्हा फल-करमन में
फल कर्म मोहे लपटात नहीं,
यहि भांति तत्व सों जानि मोहे
वे करमन मांहीं बंधात नहीं

जिन पूर्व जनान , मुमुक्ष भये
तिन ऐसो कर्म सदा ही कियौ,
इन पुरखन के अनुसार करम,
हे अर्जुन! सत्या प्रथा करियौ

सुनि कर्म-अकर्म की परिभाषा,
ज्ञानिहूँ यहि विषय विमोहित हैं,
तस कर्म को सत्व कहूं, तोसों,
भव् बांध कटे तुम्हारो हित है

सुनि कर्म-अकर्म कौ रूप यथा ,
विकर्म को बोध धनञ्जय हो,
गति करमन की अति वक्र गहन,
तेरौ करम-मरम सों परिचय हो

जिन कर्म कियौ पर कर्ता कौ,
नाहीं भाव धरै, सों अकर्ता है.
तिन मानुष उत्तम ज्ञानिन में,
वही योगी करम कौ कर्ता है

बिनु चाह बिनु संकल्पन के,
कारज होवत हैं , जन जेहि के,
ज्ञानी अतिशय सगरे ही करम,
ग्यानानल दग्ध भये तेहि के

जन ऐसो ब्रह्महिं तृप्त रहे,
कर्तापन कौ अभिमान नहीं,
करै कर्म अकर्ता भाव हिया,
कर्तापन कौ कछु भान नहीं.

जिन चित्त, देह कौ जीत लियो,
और त्याग दियो सब भोगन कौ.
अस चाह विहीन जना तन सों,
करी कर्म बंधात न पापन सों