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<span class="upnishad_mantra">
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥९- १॥
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श्री भगवानुवाच
अति गोप जो ज्ञान वही , अर्जुन!
जेहि जानि विषादमयी जग सों,
हुइ मुक्ति, रहस्य सुनौ मोंसों
<span class="upnishad_mantra">राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्॥९- २॥</span>
यहि ज्ञान पुनीत है फलदायी,
अति होत सुगम, अविनाशी है.
यहि ज्ञान गुरु, अति गोप महिम,
यहि धर्म मयी सुख राशी है.
<span class="upnishad_mantra">अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप।अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि॥९- ३॥</span>
यहि ज्ञान के तत्त्व विहीन भये,
तिनके मन श्रद्धा होत कहाँ ?
और ना ही परन्तप मैं उनकौ,
बहु जन्म-मरण तिन होत वहॉं
<span class="upnishad_mantra">मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः॥९- ४॥</span>
परब्रह्म प्रभोमय जग सगरौ,
यहि जग मुझ मांहीं समाय रह्यो.
मैं प्रानिन कौ आधार तथापि,
कदापि न नैकु समाय रह्यो
<span class="upnishad_mantra">न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः॥९- ५॥</span>
कर्ता, भर्ता, हर्ता सबकौ
जग सृष्टि नियंता धारक हूँ.,
सब मोसों, मैं नाहीं उनमें.
अस अद्भुत माया कारक हूँ
<span class="upnishad_mantra">यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्।तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय॥९- ६॥</span>
जस वायु गगन सों जनमत है,
नभ माहीं बसत अपि नित्य सदा,
तस जग सगरौ , मुझ माहीं बसे.
मोरे संकल्पन वश होत सदा
<span class="upnishad_mantra">सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्॥९- ७॥</span>
यहि कल्प के अंत में हे अर्जुन!
मुझ माहीं सबहिं लय होवत है.
पुनि कल्प के आदि में केवल बस,
एक कृष्ण , रचयिता होवत है
<span class="upnishad_mantra">प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः।भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्॥९- ८॥</span>
मम त्रिगुणी माया के वश ही,
मैं रचना कौ व्यवहार करूँ.
अनुसार करम सब प्रानिन के
पुनि-पुनि मैं यह संसार रचूँ
<span class="upnishad_mantra">न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय।उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु॥९- ९॥</span>
फल आस विहीन उदासी वत
हे अर्जुन ! होत मैं करमन में,
सों कर्तापन कौ भाव मोहें ,
नहीं बांधत कर्म के बंधन में
<span class="upnishad_mantra">मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते॥९- १०॥</span>
जग सकल चराचर और माया,
मोरे सकाश सों पार्थ ! सुनौ.
यहि हेतु सों पुनि आवन-जावन ,
कौ चक्र जगत अथ, अर्थ गुनौ
<span class="upnishad_mantra">अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥९- ११॥</span>
मैं एकही ब्रह्म सकल जग कौ,
पर मूढ़ न मोहे जानाति हैं.
तन पाय के मानव को तबहूँ ,
मोहे तुच्छ नगण्य बतावति हैं
<span class="upnishad_mantra">मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः।राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः॥९- १२॥</span>
जिन व्यर्थ आस और कर्म गहें
और व्यर्थ कौ ज्ञान वे मूढ़ जना.
तिन आसुरी तामस वृत्ति अधम
अज्ञानहूँ तिन माहीं होत घना
<span class="upnishad_mantra">महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः।भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्॥९- १३॥</span>
जिन दैविक भावन के ज्ञानी ,
मोहे सृष्टि मूल में जानाति हैं .
अविनाशी जानि अनन्य मना,
मोरो नित्य भजन वे गावति हैं
<span class="upnishad_mantra">सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः।नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते॥९- १४॥</span>
जिन भक्तन दृढ़ मन भक्ति भजन,
मोहे पाउन हेतु प्रयास करै.
मम भक्ति, अनन्य सों ध्यान करै,
और बारम्बार प्रणाम करै
<span class="upnishad_mantra">ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्॥९- १५॥</span>
जिन पूजे रूप विराट मेरौ,
तिन जित देखे, तित श्याम मयी,
कोऊ सेवक स्वामी भाव भजे,
कोऊ यज्ञ रूप सों ज्ञान मयी
<span class="upnishad_mantra">अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम्।मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्॥९- १६॥</span>
मैं यज्ञ सुधा घृत मन्त्र हूँ मैं,
मैं पावक, अन्न, हवन मैं हूँ.
मैं कर्म क्रतु औषधि मैं हूँ,
जड़ - चेतन माहीं बसत मैं हूँ
<span class="upnishad_mantra">पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च॥९- १७॥</span>
फल कर्म-प्रदाता करमन कौ,
धारण कर्ता, आधार हूँ मैं.
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