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अध्याय ९ / भाग २ / श्रीमदभगवदगीता / मृदुल कीर्ति

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कर्ता , भर्ता , हर्ता शरणम्
उत्पत्ति प्रलय सुख राशी हूँ.
उपकार करत बिनु बदले अस ,
आधार अगम अविनाशी हूँ

रवि रूप तकत मैं वर्षा कौ,
आकर्षित करी बरसावत हूँ.
सत और असत अमृत -मृत्यु
सर्वस्व मैं पार्थ बतावत हूँ

कर पान अमिय तीनहूँ विद्या ,
नर पाप रहित हुइ जात महे,
बहु काल इन्द्र के लोक रहे,
बहु भोग अलौकिक भोग गहें

जब पुण्य नसावत अस जन के ,
पुनि लोक मरण के आवत हैं,
जिन कर्म सकाम की चाह घनी,
वे पुनि-पुनि आवत-जावत हैं

जेहि भक्त अनन्य हो मोहे भजे,
फल करमन कौ जिन मोह तजे
अस भक्त को योग व् क्षेम वहन,
मैं लेत स्वयं, मोहे न बिसरे

जिन देवन अन्य कौ पूजत हैं,
अस भांति मोहे ही पूजत हैं,
बिनु ज्ञान विधान विधि सों वे,
विधि हीन मोहे ही पूजत हैं

सुन अर्जुन मैं ही हूँ क्यों कि
एकमेव ईशानंम यज्ञन कौ.
जिन तत्त्व सों मोहे न जानि सकै
पुनि पावति जन्मं -मरणं कौ

जिन पूजै देवन देव मिलें
पितरन कौ पूजे पितर मिलै,
जिन पूजें भूतन भूत मिलें,
मेरौ भक्त ही मोसों प्रवर मिलै

जेहि पात, सुमन, फल, जल मोहे
करै प्रेम सों अर्पित भक्त कोई.
साकार प्रगट, अति प्रीति सहित,
मैं खावत हूँ सोई-सोई

ताप दान धरम ,शुभ कर्म हवन.
जो खावै जो कछु कर्म किया.
कौन्तेय मोहे अर्पित करिकै
कर्तापन नैकु न होत हिया

मन योगमयी अभ्यास वृति
और मोहे अर्पित करमन सों.
मुझ माहीं समाय के मुक्त भयौ
शुभ कर्म अशुभ फल बंधन सों

सम भाव सों व्यापक प्राणी में
अथ मोरो अप्रिय न प्रिय कोई.
पर भक्त जो मोहे भजे हिय सों
अस मेरौ, में उनमें होई

कोऊ अतिशय होत दुराचारी
अंतर्मन सों यदि मोहे भजे
मानहुं तेहि साधू जस ही यदि,
दृढ़ चित्त मना सों विकार तजे

वही अधम आचरण युक्त जना
सत करम -धरम मय होवत है,.
सत शांति सनातन पाय यथा
फिर नाश कबहूँ नहीं होवत है

हे अर्जुन!नारी वैश्य शूद्र
बहु पाप करम कर्ता कोई
शरणागत मोरी होत यदि,
गति पाय परम मुक्ता सोई

ऋषिराज भगत जन ब्राह्मण के,
और पुण्य जनों के क्या कहना.
जो त्याग सकल क्षण भंगुर जग,
भजे मोहे, मोरे संग ही रहना

अर्पित तन-धन विह्वल मन सों,
अति नेह अनन्य जो प्राणी करै.
शरणागत होत समर्पित जन ,
मुझ मांहीं विलीन हों प्राणी तरै