भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
अपनी नज़र से उसने गिराया कहां कहां / महेंद्र अग्रवाल
Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:03, 25 मार्च 2012 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेंद्र अग्रवाल |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem>...' के साथ नया पन्ना बनाया)
अपनी नज़र से उसने गिराया कहां कहां
जिसको इधर-उधर से उठाया कहां कहां
घर में रहें या घर से हों बाहर यहां वहां
नज़रों का नीर हमने छुपाया कहां कहां
ताउम्र हर सफर में दिया साथ किस तरह
अफ़सोस ज़िन्दगी ने सताया कहां कहां
अब तो इसी मुकाम से ये देखना भी है
चलता है मेरे साथ में साया कहां कहां
दुश्वारियों के साथ समझना है ये हमें
अपना यहां पे है तो पराया कहां कहां
आखिर किसी पड़ाव पे देखूं मैं ज़िन्दगी
ये ख़्वाब किस तरह से सजाया कहां कहां