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"अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं / निदा फ़ाज़ली" के अवतरणों में अंतर
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गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम | गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम | ||
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09:00, 10 मई 2009 का अवतरण
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अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं
पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं
वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों तक
किसको मालूम कहाँ के हैं किधर के हम हैं
चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते हैं कि किस राहगुज़र के हम हैं
गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम
हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं