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अपनों पर अपने हैं छाए / विजय बहादुर सिंह

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अपनों पर अपने हैं छाए
दुर्दिन के दिन ऐसे आए

अब पहचान नहीं आते हैं
कौन है अपना कौन पराए

जंगल-जंगल सुलग उठी हैं
टहनी-टहनी गरम हवाएँ

कौन बचा जो ज़िन्दा साबुत
लूले - लँगड़े सारे साये

काल का कोड़ा पीठ हमारी
घेर खड़ी हैं मौत - बलाएँ।

फ़रवरी - 1990