भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

अब किसे बनवास दोगे / अध्याय 3 / भाग 3 / शैलेश ज़ैदी

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:39, 22 जुलाई 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शैलेश ज़ैदी }} {{KKPageNavigation |सारणी=अब किस...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

विद्या और अविद्या के बीच
एक गहरी खाईं है
और यह खाईं देवताओं की पुरी है
उन देवताओं की
जो ऊँचाइयों की अन्तिम हदें छूकर भी
पाताल की तहों में पड़े हैं
मैंने उन देवताओं को निकट से देखा है,
उनके षड्यंत्रों को भाँपा है,
और रेखाँकित किए हैं उनके सारे दाँव-पेंच
मैंने देखा है कि उनके एक हाथ में है
सरस्वती के चरणों की रज
और दूसरे में मन्थरा की चोटी
और इस रज को चोटी में गूंथकर
वे खड़ा कर देते हैं एक तूफ़ान,
जिससे तार-तार हो जाता है
अनुशासन का परिधान
और परिधान की गरिमा
देश के समूचे मानसून पर है देवताओं का कब्जा
आँखों का पानी अगर मर जाए
और हो जाए उसका वाष्पीकरण,
तो इसमें भी होती है देवताओं की एक चाल
और उनकी हर चाल, चाहे वह नयी हो या पुरानी
नपी तुली होती है
बाहर से शहद की तरह मीठी
और भीतर से विष में घुली होती है
न्याय की तुला पर तुलना
देवताओं ने कभी नहीं सीखा
क्योंकि न्याय के लिये ज़रूरी है विद्या
और विद्या सिखाती है निर्णय की निष्पक्षता
स्वार्थों के स्पंज से निर्मित देवताओं की गद्दियाँ,
नहीं जानतीं निष्पक्षता का अर्थ
वे जानती हैं केवल इतना
कि दुर्बलताओं से ग्रस्त आदमी को
किस तरह बनाया जा सकता है
अपने यन्त्रालय का एक पुर्जा
और किस तरह उड़ा जा सकता है हवा में
उसके कन्धों पर बैठकर
देवताओं की विद्या
आदमी की विद्या से पूरी तरह अलग है
देवता रखते हैं आदमी पर गहरी निगाह
और यह निगाह पकड़ती है आदमी की दुर्बलता
देवताओं की विद्या का दूसरा नाम है माया
और यह माया एक ठग है,
जिसे आता है आदमी को भीतर और बाहर से लूटना
जिसे आता है गुलाबों के खेतों में बबूल उगाना
जिसे आता है सन्तुलित धरती को डाँवाडोल करना