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{{KKRachna
|रचनाकार=अली सरदार जाफ़री
|संग्रह=मेरा सफ़र / अली सरदार जाफ़री
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<poem>
गुज़रते बरसात आते जाड़ों के नर्म लमहेलम्हे
हवाओं में तितलियों के मानिन्द उड़ रहे हैं
मैं अपने सीने में दिल की आवाज़ सुन रहा हूँ
मिरे तसव्वुर के ज़ख़्म-ख़ुर्दा
उफ़क<ref>क्षितिज</ref> से यदों के कारवाँ यूँ गुज़र रहे हैं
कि जैसे तारीक<ref>अँधेरी</ref> शब<ref>रात</ref> के तारीक तारीक़ आसमाँ से
चमकते तारों के मुसकराते हुजूम गुज़रें
मिरे वतन की ज़मीं से मेरा सलाम कहना
उसे बताना
कि मेरे होटों होंठों पे संगो-आहन की सर्द मुहरें लगी हुई हैं
वह काला क़ानून एक दीवार बनके रस्ते में आ गया है
जिसे अहिंसा का नाम लेकर पुजारियों ने खड़ा किया है
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