भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
अवध की खा़के हसीं / अली सरदार जाफ़री का नाम बदलकर अवध की ख़ाके-हसीं / अली सरदार जाफ़री कर दिया गया है
{{KKRachna
|रचनाकार=अली सरदार जाफ़री
|संग्रह=मेरा सफ़र / अली सरदार जाफ़री
}}
{{KKCatNazm}}
<poem>
गुज़रते बरसात आते जाड़ों के नर्म लमहेलम्हे
हवाओं में तितलियों के मानिन्द उड़ रहे हैं
मैं अपने सीने में दिल की आवाज़ सुन रहा हूँ
रगों के अन्दर लहू की बूँदें मचल रही हैं
मिरे तसव्वुर के ज़ख़्म-ख़ुर्दाउफ़क<ref>क्षितिज</ref> से यदों यादों के कारवाँ यूँ गुज़र रहे हैं
कि जैसे तारीक<ref>अँधेरी</ref> शब<ref>रात</ref> के तारीक आसमाँ से
चमकते तारों के मुसकराते मुस्कराते हुजूम गुज़रें
मैं क़ैदखा़ने में इश्क़े-पेचाँ की सब्ज़ बेलों को ढूँढ़ता हूँ
वो खेतियाँ धान से भरी हैं
जहाँ हवाएँ अज़ल के दिन से सितार अपने बजा रही हैं
हिमालया हिमालय की बुलन्दियाँ बर्फ़ से ढकी हैंउन आसमाँ-बोसे बोस चोटियों को
सहर के सूरज ने सात रंगों की कल्ग़ियों से सजा दिया है
शफ़क़ की सुर्खी़ सुर्ख़ी में मेरी बहनों की मुस्कराहट घुली हुई है
मिरे तसव्वुर में साक़ियों का ख़िरामे-रंगीन न जामो-मीना की गर्दिशें हैं
अँधेरे क़स्बों को याद करके तड़प रहा हूँ
वो जिनकी गलियों में मेरे बचपन की यादें अब तक भटक रही हैं
जहाँ के बच्चे पुराने कपड़ों की मैली गुडि़यों गुड़ियों से खेलते हैं
वो गाँव जो सैकड़ों बरस से बसे हुए हैं
किसानों के झोंपड़ों पर तरकारियों की बेलें चढ़ी हुई हैं
पुराने पीपल की जड़ में पत्थर के देवता बेख़बर पडे़ पड़े हैं
क़दीम बरगद के पेड़ अपनी जटाएँ खोले हुए खड़े हैं
सुनहरे चूल्हों में आग के फूल खिल रहे हैं
पतीलियाँ गुनगुना रही हैं
घुएँ धुएँ से काले तवे भी चिन्गारियों के होंटों से हँस रहे हैं
दुपट्टे आँगन में डोरियों पर टँगे हुए हैं
और उनके आँचल से धानी बूँदें टपक रही हैं
मैं अपने बचपन के साथियों की गरजती आवाज़ सुन रहा हूँ
वो कारख़ानों के सामने इन्क़िलाब बनकर खडे़ खड़े हुए हैं
वो खेतियों में बहार बनकर रवाँ-दवाँ हैं
अँधेरी कानों की तीरगी में
ज़मीं के सीने पे काश्तकारों की लाठियों के
हज़ारों जंगल उगे हुए हैं
कुदालें खेतों की पासबाँ हैं, दराँतियाँ दरातियाँ जगमगा रही हैं
ग़रीब सीता के घर पे कब तक रहेगी रावण की हुक्मरानीहुक़्मरानी
द्रौपदी का लिबास उसके बदन से कब तक छिना करेगा
शकुन्तला कब तक अन्धी तक़दीर के भँवर में फँसी रहेगी
किसान जो अपनी धरती पे जानवर की तरह झुके हैं
वो जिनकी पीठों पे भारी ईंटें लदी हुई हैं
जो कच्चे चमडे़ चमड़े के सख़्त जूतों से पिट रहे हैं
ये जिस्म जो कारख़ानेदारों की भट्ठियों मे उबल रहे हैं
ये हाथ लोहे के दाँत जिनको चबा रहे हैं
ये ख़ून जो नफ़खो़र नफ़ाख़ोर बनियों की थैलियों में खनक रहा है
ये औरतें जिनके हाथ पीछे बँधे हुए हैं
जो ऊँचे पेड़ों पे अपने बालों की फाँसियों में लटक रही हैं
यहाँ का एक-एक चप्पा लाखों बग़ावतों से बसा हुआ है
बग़ावतें जो हर-इक शहनशाहियत की चूलें हिला चुकी हैं
बगावतें बग़ावतें जो साम्राज को बलन्दियों से गिरा चुकी हैंबगा़वतें बग़ावतें जो फ़िरंगियों के दिलों पे हैबत बिठा चुकी है
यही पुरानी बग़ावतें फिर नये सिरे से जवाँ हुई हैं
मिरे वतन की ज़मी को नापाक करने वालो
मिरे वतन की ज़मीं से मेरा सलाम कहना
उसे बताना
कि मेरे होटों होंठों पे संगो-आहन की सर्द मुहरें लगी हुई हैं
वह काला क़ानून एक दीवार बनके रस्ते में आ गया है
जिसे अहिंसा का नाम लेकर पुजारियों ने खड़ा किया है