भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आईना टूट गया : लखनऊ की एक निजी दुपहर / शलभ श्रीराम सिंह

Kavita Kosh से
Himanshu (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 06:38, 3 अप्रैल 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गर्मी की उमस भरी दोपहरी।
सलाखों से तीर की तरह भीतर पैठती धूप !
मेरे हाथों में एक आईना है !

भीगे बालों वाली एक लड़की
हाथ में भरी हुई बाल्टी लिए
सीढ़ियाँ चढ़ रही है ।
एक गीत है सम्पूर्ण परिवेश को घेरता ।
उसके आगे पीछे एक आहट है ।
परिचय - आत्मीयता और वायदों की आहट !

जीवित होती है चिट्ठियों की परम्परा !
होती है शंका की बीमारी ।
रिश्ता बदलता है ।
[रिश्ता बदलने से मन नहीं बदलता]
चिट्ठियों की परम्परा मर जाती है !
भीगे बालॊं वाली लड़की जूड़ा बाँध लेती है !

गीत अब भी तैरता है !
आहटें आज भी आती हैं !
सिर्फ आईना टूट गया है !
(1961)