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आग के गरजते समुद्र में / शलभ श्रीराम सिंह

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आकाश का
बीच से ख़त्म हो जाना
किसी भयानक संत्रास अथवा भय का
द्योतक नहीं ।

संतुलन की अनिवार्य शर्त के अनुसार
हवा का हर झोंका
एक-दूसरे का प्रतिद्वंदी है ।
किन्हीं अज्ञात देशों की
मिट्टी का
संस्कार लेकर
कर्णातीत सुरों में बद्ध
संगीत की अनगिनत नदियां
निरन्तर बहती चली जा रही हैं !

आग के इस गरजते समुद्र में
रक्त-पुष्प से अस्थि-सेतु तक
सब कुछ सुरक्षित है !

किरणों का प्रकाश-वर्षीय यात्रा-संस्मरण
अतीत और भविष्य की सीमाओं से परे
ठण्डे सूर्यों के हाथ से खिसक कर
किन्हीं
युवा अंधी आँखों में
समा गया है !
जिनका
एक साधारण दृष्टि-निक्षेप
प्रलय के अस्तित्व को
नकारने में सक्षम है !
शायद इसीलिए
आग के इस गरजते समुद्र में
रक्त-पुष्प से अस्थि-सेतु तक
सब कुछ-सब कुछ
सुरक्षित है !
(1966)