भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आज़ाद उस से हैं के बयाबाँ ही क्यूँ न हो / 'वहशत' रज़ा अली कलकत्वी

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता २ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:07, 19 अगस्त 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार='वहशत' रज़ा अली कलकत्वी }} {{KKCatGhazal}} <poem> ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज़ाद उस से हैं के बयाबाँ ही क्यूँ न हो
फाड़ेंगे जेब गोशा-ए-जिन्दाँ ही क्यूँ न हो

हो शुग़्ल कोई जी के बहलने के वास्ते
राहत-फ़ज़ा है नाला ओ अफ़्ग़ाँ ही क्यूँ न हो

सौदा-ए-जुल्फ़-ए-यार से बाज़ आएँगे न हम
मज्मू-ए-हवास-ए-परेशाँ ही क्यूँ न हो

एहसान-ए-तीर-ए-यार अदा हो सकेगा क्या
जान अपनी नज़र-ए-लज़्ज़त-ए-पैकाँ ही क्यूँ न हो

जीते रहेंगे वादा-ए-सब्र-आज़मा पे हम
उम्र अपनी मिस्ल-ए-वक़्त-ए-गुरेज़ाँ ही क्यूँ न हो

‘वहशत’ रूकें न हाथ सर-ए-हश्र देखना
उस फ़ितना-ख़ू का गोशा-ए-दामाँ ही क्यूँ न हो