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"आमुख / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर

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आप महान हैं कविवर!
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परन्तु क्या आपने कभी सोचा है
 
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कि आपकी चाह किसे है,
 
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आपकी यह अद्भुत काव्य-कला !
 
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आपको कौन पढता होगा!
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क्या वह माध्यमिक पाठशाला का अध्यापक
 
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जिसे खाली समय काटने को साथी नहीं मिलते!
 
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अथवा आरामकुर्सी पर अधलेटा वह पेंशनभोगी
 
अथवा आरामकुर्सी पर अधलेटा वह पेंशनभोगी
जिसके अब हाथ-पांव भी नहीं हिलते!
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या तकादे को गया वह प्यादा
 
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जो खाकर लेते कर्जदार की प्रतीक्षा में झख मारता है,
 
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नैहर का भरा-पूरा घर पुकारता है!
 
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यही सब तो हैं आपके अनुरक्त, भक्त
 
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जो अवकाश के क्षणों में आपको पढते होंगे,
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उनके पास कहां है गवांने को फालतू वक्त
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उनके पास कहाँ है गवाँने को फ़ालतू वक़्त
जो जीवन के पथ पर बेतहाशा बढते होंगे,
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बडे-बडे उद्योग-धंधों द्वारा
 
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देश को समृध्दि से मढते होंगे,
 
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या ईंट पर ईंट रखते हुए
 
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सरकारी दफ्तरों में अपना भविष्य गढते होंगे।
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कवियों के लिए तो
 
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अपने किसी समकालीन को छूना भी पाप है,
 
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यदि वे भूल से किसी की कोई कृति देख भी लेते हैं
 
यदि वे भूल से किसी की कोई कृति देख भी लेते हैं
 
तो बस यही दिखाने को
 
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कि कहां उसमें पुराने कवियों का भावापहरण है, त्रुटियां हैं।
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कहां उस पर उनकी अपनी रचनाओं की छाप है।
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कहाँ उस पर उनकी अपनी रचनाओं की छाप है।
 
विद्वानों की भी भली कही!
 
विद्वानों की भी भली कही!
 
यहां विद्वान वही कहलाता है जो हर धनुष-भंजक से
 
यहां विद्वान वही कहलाता है जो हर धनुष-भंजक से
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यह कैसे हो सकता है!
 
यह कैसे हो सकता है!
 
ऐसा कौन है
 
ऐसा कौन है
जो एक साथ ही हंस सकता है और रो सकता है!
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इसलिए हे महाकवि!
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इसलिए, हे महाकवि!
 
सपने में आप इंद्र, कुबेर या कार्तिकेय कुछ भी बन जाएं,
 
सपने में आप इंद्र, कुबेर या कार्तिकेय कुछ भी बन जाएं,
 
चाहे जितने विशेषणों से अपने को सजा लें,
 
चाहे जितने विशेषणों से अपने को सजा लें,
आईने के सम्मुख कितने भी तन जाएं,
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यथार्थ के क्षेत्र में तो आपको सदा
 
यथार्थ के क्षेत्र में तो आपको सदा
 
धूल ही चाटनी होगी,
 
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कमाऊ पुत्रों की उपेक्षा झेलनी होगी,
 
कमाऊ पुत्रों की उपेक्षा झेलनी होगी,
पत्नी की झिडकियों में आयु काटनी होगी।
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भास हो या कालिदास,
 
भास हो या कालिदास,
 
सबने भोगा है यह संत्रास,
 
सबने भोगा है यह संत्रास,

03:10, 21 जुलाई 2011 का अवतरण


आप महान हैं, कविवर!
परन्तु क्या आपने कभी सोचा है
कि आपकी चाह किसे है,
आपके कवित्व की परवाह किसे है!
ये ध्वनियां, ये अलंकार,
यह भावनाओं की रंग-बिरंगी फुहार
किसका मन मोहती है भला!
क्या व्यर्थ नहीं है
आपकी यह अद्भुत काव्य-कला !

आपको कौन पढ़ता होगा!
क्या वह माध्यमिक पाठशाला का अध्यापक
जिसे खाली समय काटने को साथी नहीं मिलते!
अथवा आरामकुर्सी पर अधलेटा वह पेंशनभोगी
जिसके अब हाथ-पाँव भी नहीं हिलते!
या तकादे को गया वह प्यादा
जो खाकर लेते कर्जदार की प्रतीक्षा में झख मारता है,
या पति को काम पर भेजकर उदास खडी नववधू
जिसको सपनों में बार-बार
नैहर का भरा-पूरा घर पुकारता है!
यही सब तो हैं आपके अनुरक्त, भक्त
जो अवकाश के क्षणों में आपको पढ़ते होंगे,
उनके पास कहाँ है गवाँने को फ़ालतू वक़्त
जो जीवन के पथ पर बेतहाशा बढ़ते होंगे,
बडे-बडे उद्योग-धंधों द्वारा
देश को समृध्दि से मढते होंगे,
या ईंट पर ईंट रखते हुए
सरकारी दफ़्तरों में अपना भविष्य गढ़ते होंगे।
कवियों के लिए तो
अपने किसी समकालीन को छूना भी पाप है,
यदि वे भूल से किसी की कोई कृति देख भी लेते हैं
तो बस यही दिखाने को
कि कहाँ उसमें पुराने कवियों का भावापहरण है, त्रुटियाँ हैं
कहाँ उस पर उनकी अपनी रचनाओं की छाप है।
विद्वानों की भी भली कही!
यहां विद्वान वही कहलाता है जो हर धनुष-भंजक से
परशुराम की तरह भेंटता है,
हर मंजरित रसाल को देखकर
बार-बार कंधे पर कुठार ऐंठता है,
जैसे कुम्हार का कुम्हारी पर तो जोर चलता नहीं,
पास खडे गदहे के कान उमेठता है।
विद्वान हो और सहृदय हो
यह कैसे हो सकता है!
ऐसा कौन है
जो एक साथ ही हँस सकता है और रो सकता है!
इसलिए, हे महाकवि!
सपने में आप इंद्र, कुबेर या कार्तिकेय कुछ भी बन जाएं,
चाहे जितने विशेषणों से अपने को सजा लें,
आईने के सम्मुख कितने भी तन जायें,
यथार्थ के क्षेत्र में तो आपको सदा
धूल ही चाटनी होगी,
कमाऊ पुत्रों की उपेक्षा झेलनी होगी,
पत्नी की झिड़कियों में आयु काटनी होगी।
भास हो या कालिदास,
सबने भोगा है यह संत्रास,
आज की बात नहीं,
सदा से यही होता आया है,
हर युग का भवभूति
अपनी उपेक्षा का रोना रोता आया है।