भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आलपिनों का शहर / महेश सन्तुष्ट

Kavita Kosh से
सम्यक (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:14, 2 मई 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज फिर कोई
मेरे सीने में
एक तीखी
आलपिन चुभो गया।

दर्द का
एक टुकड़ा
पाण्डुलिपि की तरह
मेरे सीने से जोड़ गया।

आजकल
आदमी भी
आलपिन से बदतर हो गया।

आलपिन हमेशा
छेद कर
दो पन्नों को जोड़ती है।
किन्तु आदमी
आदमी से जुड़ने के बाद
एक घिनौना छेद करता है।

और
एक-एक छेद से
मेरा सीना
छलनी नहीं बल्कि
आलपिनों का शहर हो गया!