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आशा की किरण / ज्योतिशंकर

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भारत न रह सकेगा हरगिज़ गुलामख़ाना,
आज़ाद होगा-होगा, आता है यह ज़माना।

ख़ू खौलने लगा है हिंदोस्तानियों का,
कर देंगे ज़ालिमों का, हम बंद जुल्म ढाना।

क़ौमी तिरंगे झंडे पर जां निसार अपनी,
हिंदू-मसीह-मुस्लिम गाते हैं यह तराना।

अब भेड़ और बकरी बनकर न हम रहेंगे,
इस पस्तहिम्मती का, होगा कहीं ठिकाना!

परवाह अब किसे है जेल-ओ-दमन की, प्यारो,
इक खेल हो रहा है फांसी पे झूल जाना।

भारत वतन हमारा, भारत के हम हैं बच्चे,
भारत के वास्ते है मंजूर सर कटाना!

रचनाकाल: सन 1930