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आसाढ़ के साँझ गहिरा गइल / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’
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आसाढ़ के साँझ गहिरा गइल
बीत गइल, दिन बीत गइल।
रह-रह बरख
झहर रहल बा, झमर रहल बा
तूं अपना कोठरी का कोना में
अकेले बइठल का सोच रहल बाड़ऽ
भींजल हवा,
जूही का जंगल में,
का सनेस ले ले जा रहल बा?
रह-रह के बरख
झहर रहल बा, झमर रहल बा।
आज हमरा हृदय मंे
तरंग उठ रहल बा
बाकिर कुल किनारा
कहीं नइखे लउकत।
रिमझिम में भींजल वनफूल
अपना गंध-सुगंध से
आज हमरा प्राण के बेचैन कइले बा।
अंहरिया रात के सूना पहर
कवना स्वर से भर दी हम?
आज का भुलाइल बा
जे अतना व्याकुल बानीं हम?
रह-रह के बरख
झहर रहल बा, झमर रहल बा।