भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इक बुत से मुहब्बत कर के / रविन्द्र जैन

Kavita Kosh से
Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:58, 27 अगस्त 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रविन्द्र जैन |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इक बुत से मुहब्बत कर के
मैं ने यही जाना है
समझाये से जो न समझे
दिल ऐसा दीवाना है
इक बुत से मुहब्बत कर के ...

खूबसूरत है बला का और बला से कम नहीं
उसका ग़म भी तो लगे तो जग का कोई ग़म नहीं
चले पाँव दिलों पे रख के
उसका ही ज़माना है
इक बुत से मुहब्बत कर के ...

फूल चम्पे का हसीन बेहद मगर खुशबू नहीं
है मेरे महबूब में, न सब कुछ वफ़ा की बू नहीं
कुछ भी मुझे घर अपना
उस गुल से सजाना है
इक बुत से मुहब्बत कर के ...