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इधर सो रहे कुछ उधर जग रहे / अवधेश्वर प्रसाद सिंह

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इधर सो रहे कुछ उधर जग रहे।
मुझे यह मुनासिब नहीं लग रहे।।

भला तो यही है सभी हम जगें।
भगायें उसे जो हमें ठग रहे।।

नहीं चाहिए कम अधिक भी नहीं।।
अमन चैन से हम रहें, जग रहे।।

निहारो उसे जो दिखाई न दे।
दही दूध से ये बना रग रहे।।

करें बात किससे सभी हैं बड़े।।
कहें सच हमेशा अडिग पग रहे।।