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इस बार तुम्हीं मेरी पतवार सम्हालो! / रामगोपाल 'रुद्र'

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इस बार तुम्हीं मेरी पतवार सम्हालो!

पर्वत पर की यह झील झकोरे खाकर
झरना बन जाने को आकुल-व्याकुल हैं;
कुछ ठीक नहीं, कब टूट जायँ तटबन्‍धन,
इन कूलाकुल लहरों में वेग विपुल है;
पतवार तुम्हीं मेरी इस बार सम्हालो।

खारे पानी में ऐसी बात नहीं थी,
तूफान वहाँ भी बहुत बार उठते थे;
लेकिन यह झील! यहाँ फिर ऐसी आँधी!
इस भाँति वहाँ ये प्राण नहीं घुटते थे;
विषकण्ठ! तुम्हीं विष का यह ज्वार सम्हालो।