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उतरौला की एक निजी शाम की स्मृति-प्रतिक्रिया / शलभ श्रीराम सिंह

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आज की यह शाम
कुछ भीगी-भीगी सी लग रही है ।
मैदान में उगी घास का मुँह पीला पड़ गया है ।
पेड़ों के साये सर्द हो चले हैं ।

ओ, मेरी बसन्त तिलके !
तुमने वही आँसू वाला गीत
साँझ के झुटपुटे में
डूबते सूरज की ओर देखकर
गाया है !
या फिर-
पिछवारे के अमोले की डाली झुकाकर
आँचल के छोर से
पलकों के गीले होंठ सहला दिए हैं !