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उमंगों की गीतिका / महेश सन्तोषी

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जिन बन्धनों को, हम धूप में प्रकाशित नहीं कर सके,
अँधेरों में परिभाषित नहीं कर सके
उन बन्धनों में, एक अनाम मैं था, एक अनामिका तुम थीं!

जो दो प्राणों में स्पन्दित रहा, हमारी नसों में, साँसों में उद्वेलित रहा
वह उन्मादों का गीत मैं था, उन उमंगों की गीतिका तुम थीं।

हम जिसे बाँहों में बसाये रहे, दो बदन एक में सिमटे
समाये रहे अगर वह प्यार का घर मैं था, तो वह प्रीत अनिकेता तुम थीं!

एक ऊर्जा थी, बाँट ली हमने, एक हरीतिमा थी हमारे हाथों में, हथेलियों में
समय ने हमारे अंगों पर मल दिया था हल्दियों का उबटन
प्यासे प्यासों में समाहित थीं, तृप्तियाँ अधरों पर प्रवाहित थीं
वक्त की अथाहों में, थम से गये थे, सिहरती देहों के समन्वित बिम्ब।
क्या हुआ अगर वह एक अनाम मैं था? एक अनामिका तुम थीं?

एक अमृत-सा तो था, जो पिया था हमने
कुछ दिनों नामों बिन....!