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एक बार और परिभाषित / वीरू सोनकर

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जब युद्धरत होने का भ्रम होगा
थकान की पीड़ाएँ चारो दिशाओ से आ आ कर शरीर को कहेंगी
कि अब विश्राम होना चाहिए

एक सूर्य अपने चिड़चिड़े तापमान के साथ पुनः उदय होगा
इस एक राज के साथ,
कि तुम जिसके खत्म होने की प्रतीक्षा में हो
वह तो अब शुरू होने को है
और दिशाएं सोख रही होगी ठीक उसी समय तुम्हारी पीड़ाएँ
और तुम्हारा भ्रम भी,
कि दिशाओ से चल कर हमेशा लक्ष्य आते है लक्ष्य-भ्रम नहीं

एक नया दिन निकल रहा होगा उसी अनंत आकाश के आलोक में,
और ध्रुवीय छोरो के आर-पार गूंज रहा होगा नाद-स्वर
मनुष्य की सामर्थ्य का!

कुछ प्रार्थनाएँ अपने पैरो में पड़ी गुरुत्व की बेड़ियां
चुपके से खोल रही हैं
और आकाश का वह वर्जित द्वार पार कर जाती हैं

एक पृथ्वी फिर गर्भ से है
एक और सभ्यता का अब जन्म होगा

और विश्राम होगा, प्राचीनता के ठहरे रहने की जिद का
नवीनता का एक और नामकरण होगा
मर चुकी सभ्यता क्षमा कर रही है
नयी सभ्यता के खुद पर उग आने के समस्त पाप

मनुष्यता फिर तैयार है
अब एक बार और परिभाषित होने को!