भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"ऐसा लगता है ज़िन्दगी तुम हो / बशीर बद्र" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
पंक्ति 13: पंक्ति 13:
  
 
मैं ज़मीं पर घना अँधेरा हूँ <br>
 
मैं ज़मीं पर घना अँधेरा हूँ <br>
आसमानों की चाँदनी तुम हो <br><br>
+
आसमानों की चांदनी तुम हो <br><br>
  
 
दोस्तों से वफ़ा की उम्मीदें <br>
 
दोस्तों से वफ़ा की उम्मीदें <br>
 
किस ज़माने के आदमी तुम हो <br><br>
 
किस ज़माने के आदमी तुम हो <br><br>

18:43, 17 अप्रैल 2008 का अवतरण

रचनाकार: बशीर बद्र

~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~

ऐसा लगता है ज़िन्दगी तुम हो
अजनबी जैसे अजनबी तुम हो

अब कोई आरज़ू नहीं बाकी
जुस्तजू मेरी आख़िरी तुम हो

मैं ज़मीं पर घना अँधेरा हूँ
आसमानों की चांदनी तुम हो

दोस्तों से वफ़ा की उम्मीदें
किस ज़माने के आदमी तुम हो