भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ओळूं नै अवरेखतां (4) / चंद्रप्रकाश देवल

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:07, 17 जुलाई 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=चंद्रप्रकाश देवल |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

म्हारै सोच रै इण झूंपै री नेवां
बोली-बोली अेक ओळूं चापळगी है

म्हैं टगमग भाळतौ रैयग्यौ। जांणै आपरा इज दोय अणबोल्या संवादां बिचाळै ‘पॉज’ आयग्यौ। म्हारै तावड़ै रौ अेकाअेक चिलकौ थारी सीळी पुड़तां ऊंडौ उतरग्यौ। म्हारौ जीवतौ सोच छोटो-छोटो छूनिजग्यौ। अेक छिब ही जिकी जमानौ नीं व्हियां माळवै उछरगी। अेक अजब, अचींती हुयगी। ओळूं माडांणी तूयगी। सावचेती अरथै नीं आवै। फालतू प्रीत अऊत जावै।

तालर रै सुनसान पाणी में छपाक,
माछली दाकळ गुम्योड़ी छिब सळवळगी है।